नैतिक मूल्य,स्वयंसिद्धा,गड्ढे व् ईमानदार नागरिक-महेश राजा की लघु कथाए

प्रसिद्ध लघु कथाकार महेश राजा की पढ़िए लघुकथा

महासमुंद:-जिले के प्रसिद्ध लघु कथाकार महेश राजा की लघु कथाए-  नैतिक मूल्य,स्वयंसिद्धा,गड्ढे व् ईमानदार नागरिक सुधि पाठकों के लिए उपलब्ध है ।

 नैतिक मूल्य हमारे एक मित्र गिरते हुए नैतिक मूल्यों के प्रति चिंतित है। मुझसे कहने लगे-“आजादी के बाद नैतिक मूल्यों में कितनी गिरावट आ गयी है!कल कचहरी गया था।मुझे अपनी जमीन की नकल लेनी थी।पटवारी ने कहा-अभी नक्शा कम्प्यूटर सेक्शन मे गया है।वहां से आ जायेगा तो आपको नकल बना दूंगा।”
मैंने पूछा-“,कब तक आयेगा?”

पटवारी ने कहा-” भई सरकारी कम्प्यूटर है,इसलिये कितना समय लगेगा।यह मैं नहीं बता सकता।” फिर मित्र ने आगे बताया कि मैंने पटवारी से कहा,कि मुझे मकान बनवाने के लिये बैंक से कर्ज लेना है……बिना नक्शे के यह संभव नहीं होगा,इसलिये और कोई रास्ता हो तो बताये। पटवारी ने रास्ता बता दिया और मैनें उसे तीन सौ रूपये नक्शा बनवाने हेतू दे दिया। कहने का मतलब यह था कि पटवारी स्तर के सरकारी कर्मचारियों के नैतिक पतन का मूल्य तीन सौ रूपया है।

महेश राजा-वे अजनबी,अँधेरा उजाला,लेखक मित्र और शाही भरवां बैंगन,धूमिल आकृति

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इसके बाद और भी राजस्व विभाग के कई अफसर है,जिनके नैतिक मूल्य गिरे है।फिर उन्होंने लगभग सभी सरकारी विभागों मे गिरते हुए नैतिक मूल्यों की विस्तृत चर्चा की। कुछ दिनो के बाद मुझे अपने भाई साहब के नये निवास मे टेलीफोन लगवाना था।पता चला वे मित्र ही यह सैक्शन देखते है।मैं प्रसन्न हो गया।मैने आवेदन भर कर उन्हें दियाऔर कहा कि भाई साहब के मकान का गृहप्रवेश एक सप्ताह बाद है।मैं चाहता हूँ।गृहप्रवेश के पूर्व फोन लग जाये।

मित्र बोले,-“यह तो अत्यंत खुशी की बात है.पर,अभी सर्किल वाले ने ईंस्टु्मैंट की सप्लाई रोक दी है।आ जायेंगे तो सबसे पहले आपके नये घर में लग जायेगा।” मैंने,पूछा,-“कितने दिन लग जायेंगे। वह बोले,-सरकारी काम है..कितने दिन लग जायेंगे यह बताना मुश्किल है।”

मैने कहा,-“और कोई विकल्प?” वह बोले.,”बडे साहब से बात करनी होगी।” मैने हँसते हुए पूछा,-“बडे साहब के नैतिक मूल्य किस रेट तक गिरे है?” वह बोले,-“आप हमारे मित्र है,आपसे ज्यादा थोड़े ही लेंगे।”

 स्वयंसिद्धा

बहुत धार्मिक सुखी परिवार था।स्वयं का बिजनेस था।बेटी का ब्याह हो गया था।एक प्यारा सा नाती भी था।अब बेटे के रिश्ते की बातचीत चल रही थी।बेटा इंजीनियर था।स्वयं के बिजनेस में हाथ बटा रहा था।

उन्हें एक घरेलू वधु की तलाश थी।जो घर के रीति रिवाज और परंपरा को संभाल सके। एक रिश्तेदार ने एक बहुत कुलीन घर का रिश्ता सुझाया।पति पत्नि और दो बेटियाँ।सामान्य परिवार।बडी रीना गोवरमेंट जाब में थी।छोटी पढ़ रही थी।

इस रिश्ते में एक हिचक यह थी कि बच्ची सरकारी नौकरी में थी। एक शुभ मुहुर्त में दोनों परिवार का मिलन हुआ।वघुपक्ष के लोगों को वर और घर दोनों पसंद आये।क्यों न आते।इश्वर का दिया सब कुछ था। मध्यस्थता कर रहे रिश्तेदार के घर में लडकी देखने का कार्यक्रम बना।सुंदर और सलीकेदार।पहली नजर में ही बात बन गयी।

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लड़का,लड़की आपस में मिले।अब प्रश्न उठा सर्विस बाबत।रीना से सवाल पूछा गया।तो बहुत ही सटीक शब्दों में उसने कहा-“देखिये,मैंने अपनी मेहनत से यह जाब हासिल की।मेरे परिवार को अभी मेरी जरूरत है।माता पिता की देखभाल और छोटी बहन की परवरिश सब मेरे कँधों पर है।

अगर आप सब मुझे स्वीकार करते है तो कृपया मुझे जाब करने दे।मैं दोनों परिवारों की जिम्मेदारी सँभालना चाहती हूँ।हाँ एक वचन देती हूँ।दोनों परिवार की मान मर्यादा और सँस्कार का पूरी निष्ठा से पालन करूँगी।

सुबह घर का सारा काम निबटा कर दस बजे आफिस जाऊँगी।शाम दिया बत्ती से पूर्व घर लौट आऊँगी। होने वाली सास ने अपने गले का हार रीना के गले में पहना दिया और उसे गले से लगा लिया। उपस्थित सभी ने तालियों की गड़गडाहट से इस रिश्ते को मंजूरी दी।

गड्ढ़े-

-“सर,मुख्य मार्ग की सडक पर फिर गड्ढे हो गये है।कोई बडे टा्ंसपोर्टर के वाहन ने नुकसान पहुंँचाया है”।

मातहत ने निरीक्षण के दौरान अफसर से कहा-
-“हो जाने दो भा ई,फिर से भरवा देंगे।सरकार ने लोककर्म विभाग को इसी कार्य के लिये बनाया है”।

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“फिर यह भी सोचो कि गड्ढे नहीं होंगे तो हमारे विभाग की क्या जरुरत?”

फिर वे अपने मातहत के कान के पास फुसफुसाये-“अरे भ ई .यह सब तो चलता रहता है।और यह समझ लो कि जब तक ये गड्ढे है, तबतक हमारे -तुम्हारे बाल बच्चों के पेट के गड्ढे भरते रहेंगे।”

“आज ही रिपोर्ट तैयार कर टैंडर निकाल दो।”

 ईमानदार नागरिक

प्रायः मुझे हर दूसरे दिन बस से शहर जाना होता था।
बहुत पहले की बात है,तब किराया होता था,तीन रूपये चालीस पैसे।परिवाहन निगम की टिकीट खिडकी पर जो आदमी बैठता था,वह मुझे साठ पैसे कभी नहीं लौटाता था।वह हर बार कहता,चिल्हर नहीं है।या झल्लाता चिल्हर लेकर आओ।मेरी तरह दूसरे यात्रियों से भी वह इसी तरह से व्यवहार करता।इस तरह शाम तक वह पंद्रह बीस रूपये बना देता।उन दिनो इतने पैसे का भी बडा महत्व था।तब वेतन 260रुपये हुआ करता था।

मैं जानता था कि उसका यह कार्य अनुचित है,लेकिन मैंनै कभी चिल्हर पैसे नहीं मांगे।मैं अक्सर दस रूपये की नोट देता और वह मुझे छह रूपये लौटाता।

यह क्रम बना रहा।आज मैने संयोग से उसे पांच रूपये का नोट दिया।उसने मुझे टिकीट दिया और छह रूपये वापस किये।मै विन्डो पर ही खडा रहा। उसने मेरी तरफ देखा और आदतन झल्ला कर कहा, -“छुट्टे पैसे नहीं है।आपको पैसों का इतना ही मोह है तो खुले पैसे लाया करे…।चलिए भीड मत बढाईये।आगे बढिये।”

मैंने कहा -“,बाबूसाहब सुन तो लिजिये,मैंनै पांच रूपये का नोट दिया था …. आपने मुझे ज्यादा लौटा दिये..।” वह बोला,-“ज्यादा लौटा दिये है तो देश के ईमानदार नागरिक की तरह वापस कर दिजिये…. दूसरोँ के पैसे पर नियत खराब करना अच्छी बात नहीं है।”  मैंनै पांच रूपये वापस कर दिये।उसने उसे मेज की दराज मे डाला और दूसरे यात्री का टिकीट काटने लगा।

महेश राजा

वसंत 51,कालेज रोड महासमुन्द(छत्तीसगढ़)

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