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महेश राजा-वे अजनबी,अँधेरा उजाला,लेखक मित्र और शाही भरवां बैंगन,धूमिल आकृति

प्रसिद्ध लघु कथाकार महेश राजा की पढ़िए लघुकथा

महासमुंद:-जिले के प्रसिद्ध लघु कथाकार महेश राजा की लघु कहानी वे अजनबी,अँधेरा उजाला,लेखक मित्र और शाही भरवां बैंगन व् धूमिल आकृति पाठकों के लिए उपलब्ध है रोज बस स्टाप पर उस कपल को देखता।वे अजनबी थे मेरे लिये। पुरुष रोज उक्त महिला को स्टाप पर छोड़ने आता।काफी देर तक वे बाते करते।हँसते है बडा अच्छा लगता था,उन्हे देख कर।बस आ जाती महिला उसमं सवार हो कर ‘टाटा बाय बाय’ कर चली जाती।पुरूष भी वापस लौट जाता।

उस दिन अचानक बादल घिर आये थे।हमेंशा की तरह मै बैंच पर बैठा एक किताब पढ़ रहा था।वे दोनो समय पर आ पहुंँचे, पर आज कुछ अलग ही बात थी।महिला बिखरी बिखरी नजर आ रही थी।वे उतेजित होकर आपस मे लड़रहे थे।

कपल आपस मे अक्सर लड़ पडते है, यह बुरी बात नही।पर इस तरह से नहीं। वे क्षेत्रीय भाषा मे लड रहे थे।टूटे फूटे शब्द कानो मे पड़ रहे थे। महिला कह रही थी-,तुम सेल्फिश हो,और…तुम्हारी फेमिली भी…। पुरूष दबे स्वर मे कुछ समझाने की कोशिश कर रहा था।पर,बात बिगड़ चुकी थी।

बस आयी.महिला पैर पटक कर चली गयी।पुरुष हताश सिर झुका कर चल पडा।कोई टा टा बाय बाय नहीं। मै चुपचाप बैठा रहा।उन्हे मैं जानता तक नहीं था।पर,उनके लिया बुरा लग रहा था।मना रहा था कि जल्द सब ठीक हो।ईश्वर से प्रार्थना करता घर लौट गया।रात देर तक नींद नहीं आयी।

अँधेरा उजाला-

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सडक के इस छोर से उस छोर तक रोशनी ही रोशनी झगमगा रही थी। रंगबिरंगी आतिशबाजी यां हो रही थी।लोग नये नये कपडों में सजे धजे ईधर से उधर आ जा रहे थे। कानू चुपचाप एक अंधेरे कोने में खडा था।उसके भीतर दूर तलक अंधेरा ही अंधेरा छाया हुआ था।

शाम घिरती चली जा रही थी।वह चाह कर भी अपने घर की तरफ लौट नहीं पा रहा था।घर की याद आते ही उसे रोना आ रहा था। सेठजी ने आज उसे हिसाब लेने के लिये बुलाया था।वह बडा खुश हो कर घर से निकला था।उसने तय किया था कि बेटे के लिये पटाखे और सस्ती सी मिठाई खरीदेगा।परंतु सेठजी की हवेली पर पहुंच कर उसके सारे अरमानों पर पानी फिर गया।चौकीदार ने बताया,कि सेठजी सपरिवार दीपावली मनाने शहर चले गये है।

लडखडाते कदमों से वह हवेली से बाहर निकला।उसने पीछे मुडकर खाली निगाहों से हवेली की तरफ देखा,जिसके बुर्ज पर ढेर सारे दिये जगमगा रहे थे। फिर वह एक जगह खडे हो गये।आंखोँ में प्रतीक्षा रत बेटे का मासूम चेहरा तैर आया।उसकी आंखे नम हो गयी। त्यौहार में कोई उधार रूपये भी नहीं देगा,वह जानता था।एक जगह बैठ कर वह रात होने का ईंतजार करने लगा।ताकि बेटा थक रोकर सो जाये। गली में बच्चे पटाखे चला रहे थे।

लेखक मित्र और शाही भरवां बैंगन-

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बहुतदिनो बाद पोस्ट आफिस में एक लेखक मित्र से मुलाकात हो गई।ढाई सौ रूपये का मनी आर्डर लेकर वे बाहर निकल रहे थे।मुझे देखकर मुस्कुराये, बोले.,ढाई सौ का पेमेंट मिला अब तो रोज कुछ न कुछ मिलेगा।”
मैंने कहा-“व्यंग्य के लिये इतना पेमेंट ठीक ही है। वह बोले,-“मारो गोली व्यंग्य को…मैंने भरवां बैंगन की व्यंजन विधि महिला पत्रिका में भेजी थी…।उसी का मानदेय है। अब मैं भरवां भिंडी,भरवां परवल और भरवां आलू की विधियां लिखूंगा…. अपने यहां व्यंजन साहित्य की बडी मांग है और इसमे स्कोप भी बहुत है। भरवां बैंगन मे काजू किसमिस और बादाम डाल दो तो यह शाही भरवां बैंगन हो जायेगा,यानी कि इसी बैंगन से ढाई सौ रूपये और बन जायेंगे।*
इसके बाद वे सब्जी मार्केट की ओर प्रसन्न मुद्रा में मुड़ गये।

धूमिल आकृति-

एक पेड़ की डाल पर अपने घोंँसले में बैठ कर वे पक्षी आराम कर रहे थे।शाम हो गयी थी।बच्चे भी शांत थे।अचानक मादा ने अपने नर से पूछा,”ऐ जी,अधिकतर आप लोग ही स्वच्छंद आसमान में उड़ान भरते रहते है।हम लोगों को यह अवसर नहीं दिया जाता.क्यों?”

नर हँसा,-“भागवान, यह तो युगों युगों से चले आ रहा है।नर बाहर विचरण करते हैं,और मादा घर पर रह कर बच्चों और घर की देखभाल करती है।” मादा यह सोच ही रही थी कि यह सब कब तक चलेगा,सुना है;ईंसानों में तो अब नारीयाँ नर के कँधोँ से कँधा मिलाकर चलती है ।तभी हमेंँशा की तरह नर उड़ता हुआ उससे दूर जाने लगा।मादा को उसकी धूमिल पड़ती आकृति नजर आ रही थी। अपने को सँभालते हुए मादा ने अपने बच्चों को पँखों में जोरों से समेटा और सोने का प्रयास करने लगी। रात गहरी होती जा रही थी। (महेश राजा,वसंत 51,कालेज रोड महासमुन्द )

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