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महेश राजा की लघुकथा “शाम की थकी लडकी” के अलावा पढिए अन्य लघुकथा

वे घर के बाहर सांध्य भ्रमण कर रहे थे।एक युवती सामान्य कपड़ो में भागे भागे,,,

जागी आँखों का सपना के अलावा पढिए अन्य लघुकथा महेश राजा की

महासमुंद-जिले के प्रसिद्ध लघुकथाकार महेश राजा की लघुकथा शाम की थकी लडकी, मन का मीत,शादी का निमंत्रण, मजदूरी व् जिंदगी :एक इम्तिहान सुधि पाठकों के लिए उपलब्ध है।

शाम की थकी लडकी

वे घर के बाहर सांध्य भ्रमण कर रहे थे।एक युवती सामान्य कपड़ो में भागे भागे कहीं जा रही थी। उसके चेहरे पर दिन भर की थकान थी। उन्होंने रोक कर पूछा,बिटिया,इस तरह उतावले होकर कहां जा रही हो? लगभग दौडते हुए उस युवती ने कहा,अंकल,काम करके आ रही हूँ और काम पर जा रही हूँ।

वे समझ गये कि वक्त की मारी यह लडकी दूसरों के घर का काम निबटा कर अब अपने घर को जा रही है।घर जाकर भी उसे परिवार के लिये रोटी और भोजन का प्रबंध करना है। यही उसकी नियति है।

 मन का मीत

आज अचानक साहित्य पर बात करते हुए राज और रीमा में मनमीत विषयक बात छिड़ गयी। राज दर्द भरी आवाज में बता रहा था।बचपन से लेकर बड़े होते तक साथ रहा।बहुत चाहती थी वो पीले फ्राक वाली गोलमटोल लड़की।भाग्य का दोष या स्वयं की गलती से उसे खो दिया।आज भी उसे याद करता हूँ, उसकी पूजा करता हूँ। बहुत याद आती है वो।कई रात तकिये भिगोते हुए कटी।अब इस जन्म में तो मनमीत संभव नहीं।

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रीमा बड़ी सादगी से बोली,उस समय यह सब सोचा नहीं था।पापा ने विवाह कर दिया।ससुराल चली गयी।पहली बार ससुराल आयी तो वो मन का मीत मिलने आया था,उसकी आँखों में खामोशी और आँसू थे।पूछने पर विवाह में क्यों नहीं आये।वह बहुत धीमे स्वर में बोला,तुम्हें चुपचाप दिल में बसा के रखा था।दूसरे का होते कैसे देख पाता।तुम्हारी शादी में मैं नाच ही न पाता।

कहते कहते रीमा की आवाज भीग गयी थी।उस नादान ने एक बार कहा तो होता।पर,आज यह सोचना अच्छा लगता है,कि कोई तो था जीवन में जो दिलोजान से चाहता था।भले ही वह मन का मीत न बन पाया।

शादी का निमंत्रण

शादी का सीजन चल रहा है।आज तो हद हो गयी।चार निमंत्रण एक साथ मिले।आफिस के मित्रों मे हडकंप मच गया ।सारी पार्टियां एक ही रोज है,कहाँ कहाँ जाये।खाने के शौकीन मुंगेरी लाल ने तो यहाँ तक कह दिया कि….एक ही दिन क्यों म. रहे है।अलग अलग दिनों मे रखते तो हर जगह अलग अलग व्यंजन खाने का आनंद आता।

मैंने पूछा,”-अब क्या करोगे?” वह बोले-“पता लगाते है कि किसके यहां अच्छा माल बना है।एकावन रूपये का लिफाफा देंगे ,तो कुछ तो वसूल करना ही पडेगा।”

मैंने कहा-“यह तो तुम्हारी आदत है,एकावन की जगह सौ का नहीं वसूल नहीं लेते,कोई काम नहीं करते ।तुम्हारी रूचि से तो पूरा आफिस परीचित है।”

 मजदूरी

वे दीवारों पर से राष्ट्र-विरोधी पोस्टर हटाकर साम्प्रदायिक सद्भाव के पोस्टर चिपका रहे थे। मैंने पूछा,-क्या दीवारों पर पोस्टर चिपकाने से देश में साम्प्रदायिक सद्भाव कायम हो जायेगा?

वह बोले-यह तो हम नहीं जानते….हम तो केवल इतना जानते है कि एक पोस्टर दीवार पर चिपकाने की हमारी मजदूरी दस रूपये है।

जिंदगी :एक इम्तिहान

बच्चों के इम्तिहान का आज आखिरी दिन था।बच्चे खुश थे,कल से दिपावली की छुट्टियां आरंभ होने वाली थी।दुःखी थी तो स्कूल की आया;ममता।वह एक कोने मे बैठी बच्चों को खेलते हुए देख रही थी।कल से स्कूल मे विरानीयत छा जायेगी।

यह बात नहीं थी कि उसका कोई सगावाला न था।उसके दो बेटे थे,जो अलग अलग शहरों मे अपने परिवार के साथ रहते थे।जब किसी को पैसोँ की जरूरत होती या कभी मां की याद आती।नहीं तो कोई मां को त्यौहार पर भी न बुलाते थे।पति की मृत्यु के बाद उसने मेहनत मजदूरी कर बच्चों को पढाया लिखाया और छोटी मोटी नौकरी तलाश कर सामान्य परिवार मे शादी कर दी।सभी को वह खुश देखना चाहती थी।उसे किसी से कोई शिकायत न थी।वह जानती थी.आज का जमाना ऐसा ही है।बहुएं साथ रहना नहीं चाहती।सब घर का यही किस्सा है।उसका पूरा जीवन इम्तिहानों से गुजरा था।

अपने नसीब का दोष मान कर नगर के एक प्रतिष्ठित स्कूल मे आया की नौकरी करती,इन बच्चों के बीच अपना मन बहला लेती।कभी पोते पोतियों की याद आती कि वह उन्हें ठीक से गोद मे खिला न पायी।इन्हीं बच्चों को अपना मान खुश रहती।

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भूटान की एक अंतरराष्ट्रीय संस्था द्वारा डॉ. चंद्रेश को मिला श्रेष्ठता का सम्मान

तभी एक बच्चे के रोने की आवाज से उसकी तंद्रा भंग हुई।वह उस बच्चे को गोद मे बिठाकर चुप कराने लग गयी।सब बच्चे उसे बहुत चाहते थे।उसके साथ घुलमिल गये थे।उसे रोना आ रहा था।दिन भर बच्चों की देखभाल, उनका खाना पीना,साफ सफाई मे मन बहल जाता।।अब कल से वह क्या करेगी…यह सोच उसे सता रही थी।

मैडम ने आवाज दी।कि छुट्टी का समय हो गया।बच्चों को भरी नजरों से निहार कर बेल बजाने चली गयी।आंखो से आंसू अविरल बह रहे थे।मैडम ने यह देखा,उसके भाव समझ कर कंधों पर हाथ रख कर सांत्वना दी।गेट खोल कर वह यह ध्यान रख रही थी कि किस बच्चे का रिक्शा अब तक नहीं आया।

इतने मे देखती है कि बच्चों की टोली ने उसे घेर लिया,उनके हाथों मे एक पैकेट था।सब बच्चे एक स्वर मे चिल्ला रहे थे,बाई मां इस बार दिपावली मनाने वह उनके ही घर आये,हमने अपने पापा मम्मी से पूछ लिया है।वे भी यही चाहते है।उसने सब बच्चों को अपनी ममतामयी बांहों के घेरे मे ले लिया।भरे गले से कहा,आऊंगी,बच्चों, जरूर आऊंगी।

उसका गला रूंध गया था।बच्चे जिद करने लगे,नहीं..।अभी चलो ,हमारे साथ।उसने बच्चों को समझाया,स्कूल की रखवाली, सफाई का काम उसके जिम्मे है।समय निकाल कर वह एक एक कर सबके घर आयेगी।बच्चों ने उससे प्रामिस लिया।सबसे छोटी सिद्धि ने जब उसके हाथ मे पैकेट दिया,तब वह बोली,यह क्या है बच्चों।ईस बार सिक्स क्लास का विकी बोला,यह साडी है।हम सबने अपने जेब खर्च से पैसे बचा कर ली है।ना मत कहना।

उसने ना कही।यह मै कैसे ले सकती हूँ।इस पर मैडम बोली,-“ले लो बाई.बच्चे इतने प्यार से लाये है।उसने एक एक बच्चे को चूमा।जाते समय सिद्धि ने कहा,देख लो बाई अगर तुम घर नहीं आयी तो मै पटाखे नहीं चलाऊँगी।”

“‘नहीं नहीं, मेरे बच्चों मै जरूर आऊंगी।”
अत्यधिक खुशी से छलक आये आंँसुओं को उसने छलक जाने दिया। सब बच्चे चले गये।गेट पर खड़ी दूर उड़ती धूल को वह देख रही थी।जीवन मे पहली बार उसे लगा कि वह अकेली नहीं है।उसके जीवन का इम्तिहान समाप्त हो गया था।

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