महासमुंद- जिले के ख्यातिप्राप्त लघुकथाकर महेश राजा की लघु कथाए पहनावा,वट सावित्री के घागे,नशा सुधि पाठकों के लिए हर शनिवार की तरह इस शनिवार को भी उपलब्ध है ।
पहनावा- बड़े लोगों का परिवार था।रूपये पैसों की कोई कमी न थी।मगर वे पुराने स्वभाव के थे। घर की बहु को दिन भर साड़ी पहनकर ही रहना होता। हाँ ,अगर मायके से बेटी आती तो उस पर यह नियम लागू न था। बहु के भाई का विवाह तय हो गया था,वह फोन पर माँ से कह रही थी,मम्मी हम लोग शुरु से ही भाभी को पहनने ओढ़ने की छूट देंगे।जमाना अब बदल गया है। फिर ईज्जत और लिहाज तो आँखों का होता है….।
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वट सावित्री के घागे
नव्या बेचैन हो रही थी, जब से वह विवाह के बाद पुनीत की नयी डस्टर में बैठकर वापस आयी थी, उसका मन शांत हो ही नहीं रहा था। मन में अजीब सी ऊथल पुथल मची थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि असहनीय बदबू के साथ कैसे जीवन गुजार पाएगी। कैसे गुजरेगा जीवन, कैसे चलेगी ये जीवन जोड़ी! रह रह कर आंख से आंसू बहने लगते।
पुनीत नव्या को सांत्वना देने पास आ जाते। उनको लगता कि नव्या अपना घर छोड़कर आ रही है इसलिये दुख और पीड़ा में रो रही है । नव्या तुरंत ही उबकाई आ जाती। बंद गाड़ी में चलता ए.सी, और सिगरेट की बू। इधर सुहाग सेज सजी थी और नव्या ने अपने निर्णय को मजबूती देना शुरू कर दिया था।
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पुनीत के पास आते ही वह बोली, ‘मैं तुमसे कुछ मांगना चाहती हूँ, तुम दे पाओगे?’ पुनीत उसे मुस्कुराते हुए देखकर बोला। ‘ये कुछ पूछने वाली बात थोड़े ही है। विवाह गठबंधन में बंध गए हैं हम दोनों तो फिर हम आपस में समायोजन करेंगे। धीरे धीरे हम एक राह में चलने लगेंगे तुम्हें मांगना नहीं है बल्कि बताना है कि यह मुझे चाहिए।
कहो न क्या चाहती हो तुम मुझसे?’ नव्या की आंखें झर झर बहने लगीं वह पुनीत के गले लग कर बोली, ‘ये सिगरेट पीना धीरे धीरे बंद कर दो। मुझसे इसकी बदबू सहन नहीं है, जी घुटता है। ‘ओह, तो मैडम इसलिये रोयी जा रही थी, हम समझे बाबुल के घर छूटने के दर्द है।’ यह कहते हुए उसने अपनी शर्ट की जेब से सिगरेट का पैकेट और लाइटर निकाल कर डस्टबिन में फेंक दिया।
नशा
बहुत दिनों बाद उनसे राजमार्ग पर बने उद्यान के पास मुलाकात हो गयी।उनके हाथ में एक गुलदस्ता था। अभिवादन की औपचारिकता के बाद उनसे पूछा-“क्या बात है आजकल आप न सभा में दिखते है न रैली में। अखबार में भी आजकल आपकी फोटो नहीं दिखती।राजनीति से संन्यास ले लिया है क्या ?
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पहले वे थोड़े अकुलाये फिर सहज होकर बोले-“नहीं भैया,ऐसी कोई बात न ही है।आप तो देख रहे है आजकल हर पार्टी में खाली चापलूसी की कदर हो रही है।अवसर देखकर दल बदलने वाले भी खूब हो गये है।तो थोड़ा अंतराल लिया था।” “वैसे भी देश के हालात कुछ ठीक नहीं।”-,इस बात को वे इतनी उतेजना से बोले कि लग रहा था,वे इसे ठीक कर के ही रहेंगे।
-“सुबह सुबह,इस तरफ?” पूछने पर वे उत्साह से बोले-“दिल्ली से एक बहुत रसूख वाले नेताजी पधारे है।उनकी पहुंच दूर दूर तक है।जाकर उसने गुरूमंत्र और आशीर्वाद ले लेता हूँ।ताकि आगे अवसर आने पर राजनीति में मैं भी अपने पांव पसार सकू।” इसी मिलेजुले भाव लिये वे वन विभाग के रेस्टहाउस की तरफ बढ़ गये।
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