Home आलेख अलादीन जीन और कवि महोदय,गुनगुनी घूप,पालक,छोटा सा इंद्रधनुष-महेश राजा

अलादीन जीन और कवि महोदय,गुनगुनी घूप,पालक,छोटा सा इंद्रधनुष-महेश राजा

कवि निर्दयी जी हरदम अलादीन के पीछे पडे रहते कि वह उनकी एक नयी रचना सुन ले।

महेश राजा की लघुकथा उपयोगिता के साथ पढिए अन्य लघुकथा

महासमुंद- जिले के ख्यातिप्राप्त लघुकथाकर महेश राजा की लघु कथाए अलादीन जीन और कवि महोदय,गुनगुनी घूप,पालक,छोटा सा इंद्रधनुष-महेश राजा सुधि पाठकों के लिए उपलब्ध है

अलादीन जिन और कवि महोदय

कवि निर्दयी जी हरदम अलादीन के पीछे पडे रहते कि वह उनकी एक नयी रचना सुन ले। अलादीन हमेंशा टाल जाते। एक दिन अल्लसुबह निर्दयी जी अपनी कविताओं का पोथा लेकर अलादीन के घर आ धमके।बचने की कोई सूरत नजर न आने पर अलादीन ने कहा,”आप बैठिये मैं चाय बना कर लाता हूँ।”

परायी सोच,सिलसिला,पेट की खातिर व्  भय- महेश राजा की लघु कथाए

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भीतर पहुंच कर कबाड से चिराग निकाला .उसे रगडा। हमेंशा की तरह मुस्कुराता हुआ जिन प्रकट हुआ,”हुकुम करो मेरे आका।” अलादीन ने बडी विनम्रता से कहा,यार,बाहर निर्दयी जी बैठे है,मान ही नहीं रहे।उनसे दो तीन कविता ए सुन लो।
इतना सुनना था कि”,न…।हीं….” की आवाज के साथ जिन बेहोश होकर चिराग में समा गया।

 गुनगुनी धूप-

सुबह जल्दी नींद उड गयी।सब सोये हुए थे। बाहर निकल कर देखा,सुंदर दृश्य सामने थे।मौसम खुशगवार था। ठंडी ठंडी हवा के झोंके चल रहे थे। दैनिक कार्यों से निवृत होकर प्राणायाम और योगा किया।आसमान से बाल भास्कर ने अपना मुख दिखलाया। वे पिछले दिनों के बारे में सोचने लगे।पढाई लिखाई,ब्याह, दो बच्चे,अच्छी जाब।फिर उनकी परवरिश। दोनों पढ़ लिख लिये।अच्छी जगह सेटिल भी हो गये।खुद का घर भी बन गया।दोनों का ब्याह भी हो गया।

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बहुऐं घर आयी तो सबने कहा,ये तो परायी है। बहुएं है,बेटों को लेकर चली जायेगी।वे कहते नहीं ये मेरी बेटियां है,और हमेंशा मेरे साथ रहेगी।हुआ भी यही।दोनों संस्कार वान थी। हवा का तेज झोंका आया तो वे वर्तमान में लौट आये।अपने जीवन से वे पूर्ण संतुष्ट थे।

तभी नीचे से आवाजें आयी।दोनों बहु बेटियाँ उपर आयी।उनके पैर पड़ कर बोली,हैप्पी फादर्स डे। वे खुश हो गये।ढ़ेर सारा आशीर्वाद देकर बोले,बच्चों सदा खुश रहो,स्वस्थ रहो। सूरज देवता आसमान से मुस्कुरा रहे थे।

 पालक-

रविवार की सुबह।छुट्टी का दिवस। पर,सौदा सुलफ के लिये उचित दिवस।अन्य दिन तो भागमभाग, अपडाउन मे ही निकल जाता है।चाय नाश्ता निबटा कर पत्नी जी ने एक लंबी फेहरिस्त एवम थैला थमा दिया।मैंने पूछा,सब्जी क्या लाऊ?इस पर पत्नी ने कहा,आज आपकी छुट्टी है.कुछ बढिया बनाते है।जैसे पालक पनीर,मटर पुलाव।यह सब ले आईये और हां,ताजी धनिया पती एवम हरा लहसुन लाना न भूलियेगा।

मै थैला लेकर बाजार की तरफ चल पडा।राह मे साहुजी मिल गये तो गपशप करते टी स्टाल की तरफ मुड गये।
वहां से निकल कर नुक्कड पर पहुंचा तो देखा,एक छोटा बालक व एक बालिका एक किनारे पर बोरी बिछा कर ताजी सब्जी लेकर बैठे हुए थे।

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मैंने बच्चे से पूछा,”पालक है क्या ,बेटा?” बच्चा अपलक मुझे देखता रहा।कुछ कह न पाया।तभी बालिका जो शायद उसकी बडी बहन थी,आ पहुंची।मैने उससे भी यही सवाल किया।अन्यमनस्क वह बुदबुदाई,बाबूजी पालक होते तो यह सब थोडे ही करना पडता।उसके मासूम चेहरे पर एक अनोखा दर्द था।साथ ही उसकी भीगी आवाज मन को छू गयी।

पूछने पर बालिका ने बताया, उसकी मां का एक एक्सीडेंट मे निधन हो गया था।पिता को तो कभी देखा ही नहीं।
मैंने पूछा,पढने जाते हो?” “कहां,साहब,ले देकर तो दो जून की रोटी नसीब है। पडौस की एक टीचर दीदी ने एट खोली और यह काम दिलाया है।जैसे तैसे काम चल रहा है। घर काम करोगी पूछने पर उसने ना कही,भाई छोटा है।हां मेहनत कर उसे पढाना है।

फिर बोली-“क्या क्या लेंगे।सारी सब्जी ताजी है,यह टमाटर लिजिये,देशी है। मैंने जरूरत से ज्यादा सब्जी ली और सौ का नोट दिया।कहा,चिल्हर रख लो। वह बोली ,,नहीं साहब जो वाजिब है ,वही लेंगे। शेष रुपये वापस कर वह दूसरे ग्राहक की सब्जी तौलने लगी। मै भरे मन से घर की तरफ लौटा।पत्नी को सबकुछ बता कर उन मासूमों के लिये कुछ करने की बात सोचने लगा।

छोटा सा इंद्रधनुष

राज और रीमा में एक अव्यक्त रिश्ता था।दोनों को एक दूसरे की खूब परवाह थी। दोनों अपने अपने जीवन की कुछ समस्याओं से घिरे थे।खुलकर डिस्कस भी करते और हल भी ढूंढते।वे एक दूसरे को थामे रहते कि किसी विपत्ति में भी हार नहीं माननी है। कोई दिन ऐसा न जाता जब वे सुप्रभात से लेकर दिन में दो तीन बार बातें न कर लेते।

आज सुबह से रीमा ढ़ेर सारे कार्यों में उलझी थी ।सुबह साढे चार बजे नियम से उठी थी।योगा,पौधों की सेवा,स्नान और पूजा।उसके बाद दैनादिन के कार्य।पति को लेकर भी परेशान थी।वे दो दिनों से टूर पर थे।उनका फोन भी न आया था।बच्चे की आन लाइन परीक्षा चल रही थी।कालेज जाकर ढ़ेर सारे पेपर जाँचने थे।

साहित्यिक पक्षधरता,भूख कीआग,वादा व् व्यंग्य की समझ:- महेश राजा की लघु-कथा

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.राज के ढ़ेर सारे मैसेज आ गये थे।उपवास है कुछ खाया कि नहीं।बाहर जाओ तो अपना ख्याल रखना और चिंता बिल्कुल नहीं करना।कितनी दुबली हो गयी हो।और वह थी कि एक भी जवाब नहीं दे पायी थी।मन जो विचलित था।

उसने स्वयं को आईने में देखा।शायद राज सच कह रहा है।पर,वह क्या करे। परेशानी याँ उसका पीछा ही नहीं छोड़ रही एक जगह बैठ कर जोरों से लंबी साँस ली।जूस पीया।स्वयं को शांत किया। घर का सारा काम निपटा कर कालेज पहुंची।पूरे मन से काम किया।फिर घर चली आयी।

बारिश होने के आसार थे।बाहर कपडे सूख रहे थे।उन्हें भीतर किया।बेटे को कुछ खाने को दिया।स्वयं के चाय रखी। पानी थोड़ी देर बरस कर बंद हो गया था।फोन और चाय लेकर छत पर चली आयी।राज को भी फोन करना था।तभी उसने देखा उसके घर के ठीक उपर आसमान में रंगबिरंगा इंद्रधनुष अपनी छटा बिखेर रहा था।उसे बचपन से ही इंद्रधनुष देखना अच्छा लगता।

उसका मूड ठीक हो गया था।वह पुराने गाने की पंक्ति गुनगुना रही थी।उसे राज की बाद याद आ गयी।वह अक्सर कहता-“देवीजी,उपर वाले पर भरोसा रखो।वह सब ठीक कर देगा।” वह बरबस मुस्कुरा उठी।तभी मोबाइल बज उठा।उसने देखा,पतिदेव का फोन आ रहा था।उसने सिर उठाकर,मुस्कुरा कर गायब होते इंद्रधनुष को देखा और फोन पर बात करने लगी।

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