Home आलेख पीछे छूटता हुआ गांव व् एक निबंध ऐसा भी :-महेश राजा की...

पीछे छूटता हुआ गांव व् एक निबंध ऐसा भी :-महेश राजा की लघु कथा

इस बार की होली जिद करके गाँव में ही मनाने को सोचा था,वरना उनकी पत्नी व बच्चों की ईच्छा जरा भी न थी

महेश राजा की लघुकथा उपयोगिता के साथ पढिए अन्य लघुकथा

महासमुंद:-जिले के प्रसिद्ध लघु कथाकार महेश राजा की लघु कथाए- पीछे छूटता हुआ गांव व् एक निबंध ऐसा भी सुधि पाठकों के लिए उपलब्ध है ।

पीछे छूटता हुआ गांव-ट्रेन ने गति पकड ली थी। टेलीफोन के खंभे ,नदी,पहाड़ सब पीछे छूट रहे थे। विवेकचंद्रजी अपनी पत्नी और दो बच्चे अमित और नीमू के साथ गांव से लौट रहे थे। इस बार की होली जिद करके गाँव में ही मनाने को सोचा था,वरना उनकी पत्नी व बच्चों की ईच्छा जरा भी न थी।

गांव मे माता पिता और छोटाभाई अपनी पत्नी तथा एक बच्चे राजू के साथ रहते थे। अच्छी सर्विस मिल जाने से वे शहर मे ही रच-बस गये थे। उनकी ईच्छा कई बार गांव आने की रहती,पर बाकी लोगों की अनिच्छा देख कर कभी वे अकेले ही हो आते तथा मातापिता से बहाने बना देते कि बच्चों की परीक्षा है,ईत्यादि। पर हर माह कुछ रूपये भेजना वे नहीं भूलते थे। वे जानते थे कि आज वे जो कुछ है,वह माता पिता की मेहनत और आशीर्वाद का नतीजा है।पर उनकी पत्नी यह सब न समझ पाती।

“पालक,खबर व्  टेढ़ी पूँछ वाले कुत्ते की फिलासफी”-लघु कथा महेश राजा की

पीछे छूटता हुआ गांव व् एक निबंध ऐसा भी :-महेश राजा की लघु कथा

ट्रेन मंथर गति से चल रही थी। “मम्मी कितने गंदे होते है,गांव के लोग….और वो ईडियट राजू ने तो मेरी नयी वाली शर्ट ही गंदी कर दी।उस पर रंग डाल दिया। मैंने भी वो चांटा मारा,बच्चू याद रखेगा।”-अमित कह रहा था। वो सब तो ठीक…पर तुमने अपने पापा को नहीं देखा? सुबह से कैसे निकल गये थे,घर से…जब लौटे तो पूरे भूत से नजर आ रहे थे।-यह उनकी पत्नी की आवाज थी।

-“मम्मी गांव मे कमोड भी नहीं।हमे नहीं जमता। आप पापा को गांव जाने को ना कह देना-“नीमू कह रही थी।
आंखे मूंदे मूंदे सारी बाते सुनकर विवेकचंद्रजी बचपन की यादों मे गुम हो गये।गांव में उनकी शैतानी के किस्से प्रसिद्ध थे।बडे शरारती,सबको परेशान करते।कभी वे किसी के पेड की ईमलियां तोड लाते,या आम।कभी किसी ग्वालिन की मटकी फोड देते।होली के समय तो वे गजब ही करते।छोटे से पोखरे मे ढेर सारे टेसू के ढेर सारे फूल तोड कर घोलते।फिर जो भी निकलता उसे पकडकर उसमें डूबो देते। शिकायत होने पर पिताजी लकडी लेकर दौडाते।

वह चौंक पडे-“…नहीं.. नहीं बाबूजी,मैंने कुछ नहीं किया। पत्नी उन्हें झिंझोड़ कर जगा रही थी। यह क्या बड़बड़ा रहे थे आप?कोई सपना देखा।उठिये अपना शहर आ गया। हाँ,कुछ नहीं।कह कर आँखों की कोर पर छलक आये आँसुओं को रूमाल से पोंछते हुए वे कुली को तलाशने लगे।

एक निबंध ऐसा भी

परीक्षा की पूर्व तैयारी चल रही थी।होली का त्योहार नजदीक था। हिंदी के सर ने होली पर निबंध लिखने को कहा।
एक अमीर घराने के कुलदीपक ने कुछ यों लिखा। होली हमारा राष्ट्रीय त्यौहार है।इस रोज स्कूल मे छुट्टी रहती है।सुबह नहा धोकर ब्रेकफास्ट आदि निपटा कर हम टीवी पर पोगो कार्टून चैनल देखने लग जाते है।

महेश राजा की लघु-कथाए” हालात” “स्वीकारोक्ति” “बँटवारा” “बेड़ियाँ ” व् थकान

फिर कुछ ईन्डोर गेम खेलते है।फिर थोडी देर टीवी पर कार्यक्रम देखते है।मम्मा लंच के लिये आवाज लगाती है। सब मिलकर श्रीखंड पूरी खाते है।फिर आराम करते है।आज के दिन पढाई से मुक्त रहते है। शाम को उठ कर फ्रुट आदि के बाद टीवी पर फिल्म,कार्टून या वीडियो गेम खेलते है।फिर डिनर और रात को हारर फिल्म देखते हुए डर कर सो जाते है।

हमसे जुड़े :–https://dailynewsservices.com/