महेश राजा की लघु कथाए-घर की बात,बन्द आँखें,एक आम आदमी की चिंता और चिंता

अव्यक्त प्रेम,असल बात,शाम की थकी लडकी,प्रभुत्व की बात व् अंतर-महेश राजा

महासमुंद:-जिले के प्रसिद्ध लघु कथाकार महेश राजा की लघु कथाए-घर की बात,बन्द आँखें,एक आम आदमी की चिंता और चिंता सुधि पाठकों के लिए उपलब्ध है ।

घर की बात-भीतर से भागी भागी रूही आयी। चंँचला आँगन में बरतन-चौका निपटा रही थी। रूही बोली-“,दीदी,अगले महीने चाचू की शादी है। हम सबको नये कपड़े मिलेंगे। आपको भी साड़ी मिलेगी।”काम करते हुए चँचला ने यूँ ही पूछा-“किसने बताया,बेबी?”

रूही उत्साह से बोली-“पापा,मम्मी से कह रहे थे। शादी में काम बढ़ जायेगा तो एक और कामवाली रख ले?इस पर मम्मी बोली-“नहीं.. नहीं.. इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी। चँचला है न। फिर यह घर का काम है,वह खुशी-खुशी करेगी । हाँ शादी में एक सस्ती साड़ी और मिठाई का एक पैकेट दे देंगे।”

महेश राजा की लघु कथाए-घर की बात,बन्द आँखें,एक आम आदमी की चिंता और चिंता
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चँचला सोच रही थी। पिछले दस बरस से यहाँ काम कर रही है। ऐसे कितने ही कार्यक्रम निबटाये है। फिर यह तो घर की शादी है। बड़े लोगों की तो आदत हीहोती है,छोटों का उपयोग करने की। पर,वह तो यह सब घर का काम समझ कर करेगी। फिर बाबूजी कितना मान देते हैं। उन्होंने रूही और उसमें कोई अंतर नहीं समझा।

अब वह पूरे उत्साह से काम निबटाने लगी। साथ ही क्षेत्रीय भाषा में शादी के मांँगलिक गीत भी गाने लगी। ऐसा करते वक्त उसके चेहरे पर खुशी की चमक थी।उसके हाथ तेजी से बरतन चमकाने में लगे थे।

बन्द आँखेंः

बस छूटने ही वाली थी। दरवाजे की तरफ से अजीब सा शोर उठा,जैसे कोई कुत्ता हकाल रहा हो। परेशानी और उत्सुकता के मिले जुले भाव लिये मैंने उस ओर देखा तो पता चला कोई बूढ़ा व्यक्ति है,जो शहर जाना चाह रहा है। वह गिडगिडा रहा था,'”तोर पांव परथ ऊं बाबू.मोला रायपुर ले चल। मैं गरीब टिकीस के पैसा ला कहांँ ले लानहुँं। “उसका शरीर कांँप रहा था।
-“अरे चल चल। मुफ्त में कौन शहर ले जायेगा। चल उतर।तेरे बाप की गाडी है न।”कंडक्टर की जुबान कैंची की तरह चल रही थी।”। किसी गाडी के नीचे आजा,शहर क्या सीधे उपर पहुंच जायेगा.”एक जोरदार ठहाका गुँज उठा।

एक सज्जन जिन्हें ड्यूटी पहुँचने के लिये देर हो रही थी बोले-“,इनका तो रोज का है। इनके कारण हमारा समय मत खराब करो। निकालो बाहर”।” एक अन्य साहब ने चश्मे के भीतर से कहा,-“और क्या। धक्के मार कर गिरा दो। तुम भी उससे ऐसे बात कर रहे हो.जैसे वह भिखारी न हो कोई राजा हो।”

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महेश राजा की लघु कथाए-घर की बात,बन्द आँखें,एक आम आदमी की चिंता और चिंता
सांकेतिक फ़ाइल् फोटो

और सचमुच।!एक तरह से उसे धक्के मार कर ही उतारा गया। यात्रियों ने राहत की सांँस ली। डा्ईवर ने मनपसंद गाना लगाया। बस चल पड़ी। मेरी सर्विस शहर में थी। रोज बस या ट्रेन से अपडाउन। अपने कान और आंँखे बंद कर लिये थे ।नहीं तो और भी जाने क्या क्या सुनना पडता।

पर साथ ही पिछले सप्ताह की एक घटना याद हो आयी। इसी बस में एक सज्जन जल्दबाजी में चढ़े। बाद में जनाब को याद आया कि बटुआ वे घर पर ही भूल आये है। मुझे अच्छे से याद है,चार चार लोग आगे बढ़े उनकी सहायता करने को,उनकी टिकीट कटाने को। अंत में कंडक्टर स्वयं यह कर कि… यह रोज के ग्राहक है,कल ले लूंगा “-अपने रिस्क पर उन्हें शहर ले जाने को तैयार हो गये।

सोचना बंँद कर एक बार पीछे मुडकर देखा। सभी अबतक वही बात कर रहे थे। जल्दी से आगे की तरफ नजर धूमा लेता हूँ। तभी मेरी नजर सामने की तरफ लगे दर्पण पर पड़ी। उसमें मुझे अन्य लोगों के साथ अपना भी चेहरा साफ नजर आया। घबरा कर मैंने अपनी आंखेँ बंँद कर ली।

 एक आम आदमी की चिंता

भारत सरकार के उपक्रम में अड़तीस वर्ष कार्य करने के उपरांत वे अच्छी पोस्ट पर रह कर सेवानिवृत्त हुए। घर बन ही गया था।बच्चे पढ़ लिख कर अपने-अपने काम के सिलसिले में अलग अलग शहरों में रच-बस गये थे। वे अपने पुराने नगर में ही रहते थे।सब ठीक चल रहा था। एकाएक वैश्विक बीमारी ने सब कुछ तहस-नहस कर दिया। सामान्य जीवन जीना कठिन हो गया।चारों तरफ हाहाकार मच गया था।बीमारी और मौत,यही सिलसिला चल रहा था।

बच्चे सब दूरदूर थे। छोटा एक राज्य में अकेला था। पोता भी नानाजी के घर छुट्टियाँ मनाने गया हुआ था। वे हमेेेंशा चिंतित रहते,बच्चे क्या कर रहे होंगे। ठीक से खाना तो खाया होगा न। ईत्यादि।पत्नी समझाती,सब बड़े हो गये है । सब ठीक से है। उनका मन न मानता। उनका यह सोचना था कि ऐसे कठिन समय में सब साथ साथ होते। व्यवहारिक रूप से यह संभव न था। सभी की अपनी जाब थी। वे घर से ही कार्य कर रहे थे।

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जीवन भर वे एक सिद्धांत के तहत जीये थे। सर्विस भी पूरी निष्ठा व ईमानदारी से की थी। कभी स्वाभिमान को ठेस पहुंचने न दी थी। उम्र के इस पड़ाव पर पहुँचने तक ऐसी विपदा न देखी थी,न ही सुनी थी। अधिक तर घर पर ही रहना होता था। अब तो उन्होंने अखबार पढ़ना और टीवी देखना भी बंद कर दिया था। क्योंकि बस वही खबर…।उन्हें यह सब पढ़,देख कर दुःख होता। पर,आँख मूंद लेने से सच्चाई छिप थोड़े ही सकती है।

इस बीच विश्व में आगजनी,एक्सीडेंट, भूंकप,एम्फान तूफान फिर हवाई दुर्घटना आदि के मामले बढ़ते ही जा रहे थे। प्रकृति सचमुच नाराज थी। उन्हें समूचे विश्व की चिंता थी। आज ही पत्नी बता रही थी कि टीवी पर विष्णु पुराण धारावाहिक मेंजलप्लावन और मनु की कहानी चल रही है। शाम की प्रार्थना में उन्होंने प्रभु के आगे हाथ जोड़े। सारे संसार के लिये विनंती की कि हम जैसे पुराने लोग जिन्होंने दुनिया भलीभांति देख ली है,उन्हें भले उठा ले।किन्तु नयी पीढ़ी,जिन्होंने अभी अभी चलना शुरु किया है उन्होंने दुनिया को ठीक से देखा न हीं ,उन पर रहम कर।सब कुछ पहले जैसा कर दे। भगवन।

फोन पर छोटा अपनी मम्मी को कह रहा था,-‘पापा कुछ ज्यादा ही सोचते है…।हम सब ठीक से तो है। उनसे कहो कि वे हम सबकी चिंता न करे,और अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देवें। और फिर अकेले हमारे साथ ही यह सब ऐसा नहीं हो रहा। सभी परेशान है। उन भटकते मजदूरों का सोचिये,जिनके सर पर न तो छत है न खाने को रोटी। कैसे दर-दर भटक रहे है। उनसे तो हम ठीक है।अपने अपने घर पर तो है।

यह सब ठीक था। पर,घर के मुखिया होने के नाते यह सब सोचने से स्वयं को रोक न पा रहे थे। रात जब वे भोजन करने बैठे तो फिर वही ख्याल सता रहा था,बेटा बहु कैसे होंगे,पोता ठीक तो है न। और छोटे ने कुछ खाया होगा कि नहीं…. पोते ने दूध तो पीया होगा न…?

भोजन में रूचि न थी। मन मार कर थोडा़ सा भोजन कर वे हाथ जोड़ कर उठ गये। पत्नी की बात फोन पर बच्चों से हो रही थी। उनका ध्यान वहीं था,कि कब उनकी बात खत्म हो और पत्नी आकर सब बताये कि सब ठीक है…तभी वे आज रात को ठीक से सो पायेंगे।

चिंता

गर्मियों के दिन निकट थे। सब जानवर अपने-अपने ठिकानों में दुबके पड़ेथे। जंगल के राजा शेरसिंह को शिकार नहीं मिल पा रहा था।वह सोच रहा था,आजकल ईंसानों तो जंगल आना छोड ही दिया। उन्होंने अपना खुद का जंगल राज बना लिया है’। यह सोच कर उसे बड़ी कोफ्त हुई। वह भूख के मारे बैचेन था।शरीर साथ न दे रहा था। क्या करें,क्या न करें।वाली स्थिति थी। अब वह बूढ़ा हो चला था तो मातहत भी उसकी बात सुनते नहीं थे।

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महेश राजा की लघु कथाए-घर की बात,बन्द आँखें,एक आम आदमी की चिंता और चिंता
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तभी दूर से किसी गांव से भटकती,रास्ता भूलती हुयी एक बकरी पर उसकी नजर पड़ी । शेर की आँखे चमक उठी। उसने पुचकार कर आवाज दी-“क्या बात है, ओ बकरी बहन .बड़ी कमजोर नजर आ रही हो? क्या बीमार चल रही हो। कुछ घांँस -फूस नहीं मिल रही हो खाने को तो। आओ ,मैं तुम्हारे भोजन का प्रबंध कर दूँ। आखिर कार तुम मेरी प्रजा हो। और मैं तुम्हारा राजा। मेरे राज्य में कोई भूखा रहे, यह मुझे मँजूर नहीं।”

बकरी ने यह सुन कर पैर जोड़े और लगभग भागते हुए जवाब दिया,-“आदरणीय शेर सिंह जी, आपको मेरी चिंता हो रही है या अपनी?”इतना कह कर वह दूर जंगल से गांँव की तरफ दौड़ पड़ी। शेरसिंह खिसयानी हँसी हँसते हुए सिर खुजा रहा था,-“सा…आजकल छोटे-छोटे जानवर भी कितने चालाक हो गये है।” अब वह फिर से चल पड़ा,शिकार की तलाश में।।

महेश राजा,वसंत 51,कालेज रोड.महासमुंद-छत्तीसगढ़

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