महासमुंद-जिले के प्रसिद्ध लघुकथाकार महेश राजा की लघुकथा राष्ट्रीय संपत्ति,एक टुकड़ा छाँव,मजदूर या मजबूर व् रोटियाँ सुधि पाठकों के लिए उपलब्ध है।
राष्ट्रीय संपत्ति,
शहर के चिडिय़ाघर में एक नन्हें शावक को गर्मी से बचाने के लिये कूलर लगा दिया गया।यह समाचार पढ़कर एक मित्रबोले-देखते हो…अपनी सरकार जानवरों का कितना ख्याल रखती हैं…और एक हम है कि गर्मी से मरे जा रहे हैं।फ़ाईलों पर न जाने कितने पसीने की बूँदें हमारी नोटशीट के साथ इस आफ़िस की जानलेवा गर्मी की चश्मदीद गवाह हैं…
मैंने कहा-शावक राष्ट्रीय संपति हैं और उन्हें बचाना देश का कर्तव्य हैं,अभी सरकारी कर्मचारी राष्ट्रीय संपति कि परिभाषा में नहीं आते हैं।
एक टुकड़ा छाँव
राधे एक अपने गांव से दूर एक राज्य में रोजीरोटी की तलाश में छह माह पहले ही आया था। छोटा बच्चा था,साथ में।गांव में बूढ़े माँबाप और एक कुंआरी जवान बहन।
एक सपना लेकर पहुंचा था।साथी की मदद से काम मिल गया था।दो माह बाद घर भी कुछ रूपये भिजवा पाया था।अपनी वर्तमान स्थिति से खुश था।अभी और मेहनत कर ज्यादा कमाना था ताकि बहन का ब्याह हो सके,साथ ही परिवार का भरण पोषण भी।
एकाएक यह महामारी आ गयी।मालिक का काम बंद हो गया तो थोड़े रूपयें देकर सबको मना कर दिया। मकान किराया वह दे नहीं पाया था।आज मकानमालिक ने भी कह दिया।दो तीन रोज में मकान खाली कर दो। कुछ समज में नहीं आ रहा था।बस इतना पता था कि सारी दुनिया में यह बीमारी फैल गयी है,और लोग मर रहे है।
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उसे गांव की भी चिंता थी।वहां फोन की व्यवस्था भी नहीं थी।एक दूर के रिश्तेदार को घर भेजकर कुशलक्षेम पता लगी थी।सामान के नाम पर थोडा़ बहुत था।उसे तो ले जा नहीं सकते थे।एक पुरानी पेटी और एक थैला था। मकान छोड़ना ही पड़ा।गांव बहुत दूर था।सभी मजदूर पलायन कर रहे थे।
वे लोग भी निकल पड़े।थोड़े रूपये थे तो बच्चे के लिये दूध,पानी और फल खरीदा था। मई माह।भीषण गर्मी।सड़क तप रही थी।चप्पलें भी जवाब दे रही थी। कहीं कहीं पर कुछ नाश्ता और पानी मिल जा रहा था।कोई साधन न था तो एक समूह के साथ पैदल ही चल रहे थे।
घरवाली और बच्चे के सूखे मुँह देख कर उसे अपनी विवशता पर खीज आयी। कोई ठिकाना मिलता तो रूकते फिर आगे बढ़ जाते। कभी कोई खबर आती।इतने मजदूर सड़क या ट्रेन हादसे में मर गये,तो वे काँप उठते। फिर पता चला,शासन उनको घर पहुंचाने की व्यवस्था कर रही है,तो थोड़ी राहत महसूस हुई कि चलो जैसे भी हो सब साथ रहकर सुखदुःख में गुजारा कर लेंगे।
ठोकर लगने से घरवाली की चप्पल टूट कर गिर गयी।उन्हें रूकना पड़ा।थोड़ी देर बाद एक वाहन में कुछ लोग खाना और पानी लिये आये तो हाथ जोड़कर राधे ने विनंती कि-“साहब,खाना तो मिल ही जायेगा।एक जोड़ी चप्पल दिला देते।मेहरारू के पांव में छाले हो रहे है,और दूर तक पैदल जाना है।”
सभी कार्य कर्ता बगलें झांकने लगे।वे भी क्या करते,वे तो भोजन पानी बांटने निकले थे। थोडी़ देर में वाहन आगे बढ़ गया।अचानक धूप बढ़ गयी।चक्कर सा आने लगा।उसने घरवालीऔर बच्चों की तरफ देखा।वे परेशान दिख रहे थे।बच्चे के आँसू सूख गये थे । राधे अब इधर उधर नजर दौड़ा कर एक टुकड़ा छाँव ढ़ूंढ़ रहा था।ताकि वह अपनी घरवाली और बच्चे को थोडा़ सा सुकून तो दे सके।
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मजदूर या मजबूर
कड़ी धूप में दो किशोर एक हाथ में सीढ़ी और दूसरे में गोंदभरी बाल्टी और ब्रश लेकर विज्ञापनों के पोस्टर दीवार पर चिपका रहे थे। सूरज तप रहा था।बीच बीच में वे रूक कर बैठ जाते।साथ रखी बोतल से पानी पीते और फिर काम में जूट जाते।
एक सज्जन वहाँ से गुजरे।उन लोगों को देख कर रूक गये।बोले-“बच्चों इतनी कड़ी धूप में इस तरह से काम कर रहे हो ,थकते नहीं।” दोनों में से जो बड़ा था,वह बोला-“,क्या करें साहब, हम लोग गरीब घर से है।पढ़लिख भी न पाये तो ऐसा ही मेहनत वाला काम करते है।”
पूछने पर दिन भर में कितना कमा लेते हो।वह बोला-“बस पेट भरने लायक हो जाता है।एक पोस्टर चिपकाने की हमारी मजूरी पाँच रूपये है।” -“तुम्हें जिसने काम दिया होगा,वह तो इस काम का ज्यादा रूपया लेता होगा’पता है तुम्हें।”
-“हम ठहरे अनपढ़।हम यह सब नहीं जानते।वे हमें काम बताते है,जो देते है,हमलोग चुपचाप ले लेते है।”-छोटे का जवाब था।
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रोटियाँ
अप्रेल माह की चिलचिलाती धूप।राष्ट्रीय मार्ग पर सडक किनारे के ढाबा मे बडी भीड़ थी।आने जाने वाले यात्री,ट्रक ड्राइवर आदि भोजन के लिये यहाँ ही रूकते।सभी भोजन करते थे।पसीना पोंछते हुए तृप्त मन से निकलती।ढाबे का मालिक पैसे वसूलने मे व्यस्त था।नौकर रामू गरमागरम तंदूरी रोटीयां सेंकता जा रहा था।साथ हीपास रखे गंदे तौलिए से अपने माथे का पसीना भी पोंछते जा रहा था।
-“एक रोटी दे दो बाबा।भगवान आपका भला करेगा।बडी भूख लगी है।”-मैले कुचेले कपडो मे एक आठ वर्षीय बालिका हाथ मे अल्युमिनियम का कटोरा लिये खडी थी।
रामू ने देखा।रोटियाँ सेंकते हुए उसे अपने पुराने दिन याद आ गये,जब वह भी इसी तरह,भूखा प्यासा ,एक रोटी के लिये दर दर की ठोकरें खा रहा था।उसने बेली हुई रोटी को तंदूर मे डाला और दूसरी रोटी के लिये लोई बनाने लगा।
मालिक ने रामू को देखा,और एक भद्दी गाली दी।”पहले ग्राहकों को देख।” रामू को लगा कि मालिक ने उसके मन की बात समझ ली है,कि वह चाहता था ,तवे पर की रोटी मालिक की नजर बचा कर उस लडकी को दे देता। मालिक की डांट सुन कर वह अपने पुराने दिनों को भूल गया। अब उसे केवल इतना याद था कि बाहर ग्राहक बैठे है और उसे जल्दी से रोटियाँ बनानी है। वह जल्दी जल्दी रोटियां बनाने लगा।
जीवन परिचय-
जन्म:26 फरवरी
शिक्षा:बी.एस.सी.एम.ए. साहित्य.एम.ए.मनोविज्ञान
जनसंपर्क अधिकारी, भारतीय संचार लिमिटेड।
1983 से पहले कविता,कहानियाँ लिखी।फिर लघुकथा और लघुव्यंग्य पर कार्य।
महेश राजा की दो पुस्तकें1/बगुला भगत एवम2/नमस्कार प्रजातंत्र प्रकाशित।
कागज की नाव,संकलन प्रकाशनाधीन।
दस साझा संकलन में लघुकथाऐं प्रकाशित
रचनाएं गुजराती, छतीसगढ़ी, पंजाबी, अंग्रेजी,मलयालम और मराठी,उडिय़ा में अनुदित।
पचपन लघुकथाऐं रविशंकर विश्व विद्यालय के शोध प्रबंध में शामिल।
कनाडा से वसुधा में निरंतर प्रकाशन।
भारत की हर छोटी,बड़ी पत्र पत्रिकाओं में निरंतर लेखन और प्रकाशन।
आकाशवाणी रायपुर और दूरदर्शन से प्रसारण।
पता:वसंत /51,कालेज रोड़।महासमुंद।छत्तीसगढ़।
493445
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