महासमुंद- जिले के ख्यातिप्राप्त लघुकथाकार महेश राजा की लघु कथाए -कथनी करनी, पोस्टर,मौन, अभी अभी,सिलसिला सुधि पाठकों के लिए उपलब्ध है ।
कथनी करनी
एक बहुत पुराने मित्र का पत्र प्राप्त हुआ।कुशलता इत्यादि औपचारिकता के बाद उसने लिखा था,-मित्र.हिंदी हमारी राष्ट्रीय भाषा है।हमे इस पावन भाषा के विकास के लिये कुछ करना चाहिए।अंग्रेजी का मोह त्याग ना होगा।आने वाली पीढी को कान्वेंट मे नहीं गुरुकुल जैसी हिन्दी माध्यम की पाठशाला मे पढाना होगा।तभी हमारी संस्कृति बच पायेगी।प्लीज, मेरी बात पर गौर जरूर करना।तुम तो लेखक हो।इस पर फौरन कार्य शुरु कर दो।-
लिफाफे पर उसने जो पता लिखा था,वह अंग्रेजी में था।
पोस्टर
सरकार भंग होते ही दुकानदार ने अपनी दुकान पर लगे पार्टी के पोस्टर निकाल दिये। मैंने कहा,-“आप तो इस पार्टी के समर्थक रहे है…फिर…आपने पोस्टर क्योँ निकाल दिये?” वह मुसकुरा बोले,-‘आजादी के बाद हम पोस्टर बदल बदल कर ही तो अपनी दुकान चला रहे है।”
मौन
-“क्या बात है,आज बिल्कुल चुप हो।” -“कुछ नहीं।बस ऐसे ही।” -“नहीं. नहीं. कोई बात तो है।मुझे नहीं बताओगी।”
-“कुछ बात हो तो बताऊं न।” -“नहीं, मुझे तुम्हारा मौन रहना खल रहा है।” कभी कभी मौन रहना भी जरूरी है जीवन में अठखेलियाँ बातों की हर वक्त जरूरी तो नहीं।
-“तुम टाल रही हो?क्या मेरी किसी बात से खफा हो?”-“नहीं..।” -“देखो,मैं तुम्हारी खामोशी सहन नहीं कर सकता।”
-“पुरूष हो इसलिये न।क्या नारी अपनी मरजी से चुप भी नहीं रह सकती।” -“यह मैं नहीं जानता।पर,तुम मौन रहो यह मंजूर नहीं मुझे।”

-“अनादि काल से यह होते आ रहा है।नारी जब छोटी होती है तो माँ चुप रहने को कहती है,फिर शिक्षक और विवाह के बाद पति।उसके बाद बेटा-बहू।यह नारी की नियति है।”पुरूष नारी पर अपना अधिकार समझता है।उसके मौन के मनोविज्ञान को वह क्या समझेगा?क्योंकि मौन होता ही बड़ा विकट है।जिस दिन पुरूष मौन रहने का अर्थ या मौन रहना सीख जायेगी;उस दिन से समाज में क्रांति आ जायेगी और कभी न कभी यह दिन अवश्य आयेगा।” -“परंतु आज मुझे मौन रहकर अपने नारी होने का अर्थ समझना है,तो कृपा कर आज मुझे अकेला छोड़ दो।”
अभी अभी
बेटा बाहर से आया था तो भूखा था।आते ही बोला- ‘माँ कुछ खाने को दो न।’मां ने सारा काम छोड़ कर रोटी और साग परोस दिया। इकलौता बच्चा था।वे अकेली थी।सिलाई-बुनाई कर अपना व बेटे का पेट पालती थी।

बेटे को जोर की भूख थी ।वह खाता गया।वह स्नेहमयी नजरों से बेटे को भोजन करते देखती रही।यहाँ तक कटोरदान की अंँतिम रोटी भी उसे परोस दी।सब्जी तो पहले ही समाप्त हो गयी थी। अचानक बेटे को कुछ याद आया, बोला’-माँ …तुमने खाया कुछ ?’ वे तंद्रा से जागी , बेटे को देखा और झटपट बोली- हाँ… खाया न बेटा…-..अभी..अभी…।
सिलसिला
-“क्या सोच रही हो?” -“सोचने के लिये अब कुछ नहीं है।” -इतनी चुप क्यों हो?कुछ कहती क्यों नहीं।”
-“कहने सुनने को अब कुछ बाकी नहीं बचा।” -“इतनी तल्खी?आखिर क्यों?” -“सोचो,शायद!कुछ याद आ जाये।”
-“इस तरह से कैसे चलेगा?” -जैसा पहले चलते आया है।

फिक्र मत करो,तुम्हारी गृहस्थी वैसे ही चलती रहेगी।तुम्हारा खाना,पीना,कपड़े,सोना और बच्चों की जिम्मेदारी।सब करती रहूँगी। और हाँ ,मैं पहली नारी नहीं जिसके साथ यह सब हो रहा है।यह तो सदा से ही चलता आया है।सो जाओ।” दोनों मुँह फेर कर लेट गये।कमरें में एक अजीब सी खामोशी पसरी पड़ी थी।
परिचय
महेश राजा
जन्म:26 फरवरी
शिक्षा:बी.एस.सी.एम.ए. साहित्य.एम.ए.मनोविज्ञान
जनसंपर्क अधिकारी, भारतीय संचार लिमिटेड।
1983से पहले कविता,कहानियाँ लिखी।फिर लघुकथा और लघुव्यंग्य पर कार्य।
दो पुस्तकें1/बगुलाभगत एवम2/नमस्कार प्रजातंत्र प्रकाशित।
कागज की नाव,संकलन प्रकाशनाधीन।
दस साझा संकलन में लघुकथाऐं प्रकाशित
रचनाएं गुजराती, छतीसगढ़ी, पंजाबी, अंग्रेजी,मलयालम और मराठी,उडिय़ा में अनुदित।
पचपन लघुकथाऐं रविशंकर विश्व विद्यालय के शोध प्रबंध में शामिल।
कनाडा से वसुधा में निरंतर प्रकाशन।
भारत की हर छोटी,बड़ी पत्र पत्रिकाओं में निरंतर लेखन और प्रकाशन।
आकाशवाणी रायपुर और दूरदर्शन से प्रसारण।
पता: महेश राजा वसंत /51,कालेज रोड़।महासमुंद।छत्तीसगढ़।
493445
मो.नं.9425201544
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