Home आलेख अव्यक्त प्रेम,असल बात,शाम की थकी लडकी,प्रभुत्व की बात व् अंतर-महेश राजा

अव्यक्त प्रेम,असल बात,शाम की थकी लडकी,प्रभुत्व की बात व् अंतर-महेश राजा

अव्यक्त प्रेम,असल बात,शाम की थकी लडकी,प्रभुत्व की बात व् अंतर-महेश राजा

महासमुंद:-जिले के प्रसिद्ध लघु कथाकार महेश राजा की लघु कथाए- अव्यक्त प्रेम,असल बात,शाम की थकी लडकी,प्रभुत्व की बात व् अंतर सुधि पाठकों के लिए उपलब्ध है ।

अव्यक्त प्रेम-हमेंशा की तरह वे घर से बगीचे की तरफ बढ़ रहे थे। रास्ते में अपना बाजार के पास विश्राम गृह के पास एक किशोर बाइक लिये और एक किशोरी सायकिल लिये खडी थी। उसके हाथ में पुस्तकें थी। दोनों के चेहरे गंभीर थे।उन्हें पास से गुजरता देख कर किशोरी सकपकायी।किशोर ने आँखों ही आँखों में आश्वस्त किया।

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उनका मन हुआ कि दोनों को संबोधित कर कहे कि पैरेंट्स इस लिये ही तुम लोगों को पढ़ने भेजते है।पर वे चुप रहे।हो सकता है कि वे दोस्त हो,हो सकता है वे स्टडी डिस्कस कर रहे हो। हाँ बीच रास्ते में उचित नहीं। उन्हें अपना समय याद आ गया।इसी तरह वह गर्ल्स स्कूल से हट कर एक मोड पर स्कूल की छुट्टी के समय खड़े रहते।उनके जीवन की पहली,गोल मटोल लड़की की एक झलक पाने।अब तो सब समाप्त हो गया । आँखों से छलक आये आँसूओं को पोंछ कर वे आगे बढ़ गये। किशोरी भी सायकिल पर सवार होकर घर की तरफ बढ़ चली।

असल बात-

नगर में एक धार्मिक आयोजन था।हमेंशा शामिल होने वाले समर जी नजर नहीं आये। किसी परिचित ने पूछा तो वे बोले,महामारी का समय है।ड़र लगता है।भीडभाड़ की जगह पर जाने से बचना जरूरी है। आगे वे फिर बोले, आखरी रोज समापन में दर्शन कर आयेंगे।और हाँ! सुना है इस बार दोपहर के भोजन प्रसाद का भी आयोजन नहीं रखा गया है।सुबह से जाओ फिर दोपहर घर पर खाने आओ। यह संभव नहीं….

शाम की थकी लडकी

वे घर के बाहर सांध्य भ्रमण कर रहे थे।एक युवती सामान्य कपड़ो में भागे भागे कहीं जा रही थी। उसके चेहरे पर दिन भर की थकान थी। उन्होंने रोक कर पूछा,बिटिया,इस तरह उतावले होकर कहां जा रही हो? लगभग दौडते हुए उस युवती ने कहा,अंकल,काम करके आ रही हूँ और काम पर जा रही हूँ।

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वे समझ गये कि वक्त की मारी यह लडकी दूसरों के घर का काम निबटा कर अब अपने घर को जा रही है।घर जाकर भी उसे परिवार के लिये रोटी और भोजन का प्रबंध करना है। यही उसकी नियति है।

प्रभुत्व की बात

घर में एक शादी होनी थी।सारा खर्च घर के मुखिया को ही करना था।उनकी पत्नी बहुत सुलझे विचारों की थी।वे पतिदेव का पूरा साथ दे रही थी। भोजन की मेज पर वे पतिदेव को खाना परोस रही थी।कुछ खरीदी की बात आयी तो मां जी पहली बार बेटे से बोली,बेटा हाथ बांध कर रखो बेटा.अभी बहुत खर्च है।

पत्नी जी बोली,देखिये हमें जो वस्त्र आदि खरीदने है , वह किसी थोक व्यापारी से खरीदे।कुछ बचत हो जायेगी। पतिदेव नाराज हो गये। गुस्से से उनके नथुने फूल गये थे।वे खडे हो गये..बचत..बचत..।तुम लोग मुझे कंगला समझते हो।हर समय बस! उपदेश… और लगे गालियाँ बकने।

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फिर उन्होंने गुस्से में थाली उठाकर पत्नी को दे मारी।पत्नी को चोट आयी।मांजी और बच्चे सहम गये।पत्नी अपमान का घूंट पी कर रह गयी। पति देव खाना खाये बिना निकल गये। पत्नी जानती थी,यह उनका हमेंशा का है।पुरुष होने का दंभ। अब एक दो दिन घर नहीं आयेंगे। फोन भी नहीं उठायेंगे।

उस रोज किसी ने खाना नहीं खाया।पत्नी को आफिस के भी काम थे।बच्चों को दूध पीलाकर वह बार बार फोन टा्ई करती रही।फोन न लगा। वह अपने कमरे में अकेले बैठे सोच रही थी।उसकी क्या गल्ती थी।एक पत्नी होकर वह अपने विचार नहीं रख पाती।फिर क्या लाभ…।नारी होने का अभिशाप कब तक झेलना होगा…।उसकी आँखों से टप टप आँसू निकल पड़े।

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अंतर-

रीचा को सहेली के घर से नोट्स लाते और घर आते देर हो गयी।मम्मी लगी चिल्लाने। रीचा आठवीं कक्षा में थी ।उसका भाई बारहवीं में। आज रीचा कह उठी,मम्मी तुम हमेंशा मुझे ही डाँटती हो भाई कभी भी घर आये कुछ नहीं कहती।

मम्मी -क्योंकि वह लड़का है और तुम लड़की। रीचा-मम्मी लडकी होना गुनाह है क्या?आज भाई ने मेरी कक्षा की विनी को छेडा।उसे तो आप कुछ नहीं कहती।एक बात और मम्मी….. आप भी तो कभी लडकी थी न…। मम्मी स्वगत बोली,तभी तो ड़रती हूँ बेटा।आजकल समय बिल्कुल ठीक नहीं है।

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