Home आलेख लघुकथाकार महेश राजा की लघुकथा ऐसे भी वीर के अलावा अन्य कहानी

लघुकथाकार महेश राजा की लघुकथा ऐसे भी वीर के अलावा अन्य कहानी

महामारी का कठिन दौर।ऐसे में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की गतिविधियां,,,

प्रसिद्ध लघु कथाकार महेश राजा की पढ़िए लघुकथा

महासमुंद-जिले के प्रसिद्ध लघुकथाकार महेश राजा की लघुकथा ऐसे भी वीर,आलू के परांठे,एक आम आदमी की चिंता और जरूरत सुधि पाठकों के लिए उपलब्ध है।

ऐसे भी वीर

महामारी का कठिन दौर।ऐसे में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की गतिविधियां अपनी पराकाष्ठा पर हो रही थी। अच्छे काम भी हो रहे थे।सब जरूरत मंदोंतक सहायता भी पहुंच रही थी। लोग अपनी अपनी हैसियत से सबका भला करने में जुटे थे।

ऐसे ही समय में एक दानवीर से मुलाकात हुई।उनसे पूछा गया,आपने इस कठिन समय में ऐसा कौनसा काम किया,जिससे आपको कोरोना वीर की श्रेणी में रखा जाये।

उनके चेहरे पर मुस्कान आयी।फिर वे बोले-“इस कठिन दौर में साधारण व्यक्ति यों को गुडाखु,तम्बाकू और सीगरेट बीड़ी आदि सुलभ नहीं हो रहा है।बेचारे पांच रूपये की चीज सतर रूपयों में खरीद रहे थे।कुछ साथियों की सहायता से हमने इन्हें उचित मूल्य पर यह सब वस्तुऐं सुलभ करायी वाकई यह तोबड़ा महान कार्य था।लोग भूखे रह लेंगे पर यह सब नशा तो उन्हें चाहिये ही।ऐसे में उनकी मदद करना वाकई बहुत बड़ा कार्य था।

 लघुकथाकार महेश राजा की लघुकथा अपने हिस्से का सुख के अलावा अन्य कथा

लघुकथाकार महेश राजा की लघुकथा ऐसे भी वीर के अलावा अन्य कहानी
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उस महान हस्ती को नमन कर दूसरे मुहल्ले पहुंचे तो देखा एक युवक के कपड़े फटे हुए थे,उसे चोटें भी आयी थी।पूछने पर पता चला,मुहल्ले की शराब दुकान खुल गयी थी।भारी भीड़ लगी थी।एक बुढ़ा व्यक्ति गिरता पड़ता कतार में खड़ा था।उसे नशे की लत थी। उसे शराब की जरूरत थी।दया आ गयी तो सोचा चलो इसका भला किया जाये।कतार तोड़कर लड़ झगड़ कर उस बूढ़े व्यक्ति को शराब की एक बोतल मुहैया करायी।वाक ई यह भी बड़ा महान कार्य था।इस सैनानी को भी सलाम।

पडोस के ही एक मुहल्ले में अनाज और भोजन के पैकेट बंट रहे थे।सफेद झक कपड़ों में एक समाज सेवक फोटो खिंचवाने में मशरूफ थे।ताकि दूसरें दिन अखबारों की सुर्खियाँ बटोर सके। इन्हें तो दो दो बार नमन।।

इसी बीच एक खबर आ रही थी।एक ट्रक वालें ने हजारों रूपयों लेकर कुछ मजदूरों को उनके घर पहुंचाने का वादा किया और रूपये लेकर भाग खड़ा हुआ। इस वीर की वीरता को क्या कहियेगा? ऐसे ऐसे सैंकड़ों उदाहरण आपको अपने आसपास नजर आयेंगे।क्या आप उन्हें नमन करना नहीं चाहेंगे? हम तो आज कृत कृतज्ञ हो गये।आप बताये?

आलू के परांठे

छोटा सा परिवार था उसका।पत्नी और दो बच्चे।छुट्टियों मे बडी भाभीजी छोटे भतीजे के साथ घर आयी हुयी थी। घर मे जैसे खुशियों के दीप जल उठे।पत्नी वैसे ही अतिथि सत्कार के लिये उत्कंठ रहती।फिर यह तो घर के लोग थे।बच्चों का भी मन लग रहा था।

भाभीजी बहुत स्नेहिल स्वभाव की थी।उन्हें पुत्रवत ही समझती। रोज सैर सपाटा,पिकनिक,बगीचा,झूला अच्छी अच्छी डिशेज।समय पंख लगाकर उड रहा था।

एक रोज भतीजे ने आलू के परांठों की फरमाइश की।पत्नी ने आलू के परांठे और टमाटर की स्पेशल चटनी बनायी थी।पत्नी गरमागरम परांठे सेंक रही थी.वे,भतीजा और बच्चे भोजन कर रहे थे। भाभी ने भतीजे से कहा,ले बेटा एक और परांठा ले।तेरी चाची ने कितने बढिया बनाये है।

फिर भाभी पत्नी को बताने लगी,परांठे के मामले मे यह अपने चाचू पर गया है।आलु के परांठे सामने हो तो बस खाता ही चला जाता है… यह सुन कर वे बचपन की यादो मे खो गये।तब अभाव भरा जीवन था।भाई के यहां रह कर पढता था।वैसे तो सभी उसे बहुत चाहते थे।पर वह शरारती और खाने का बडा शौकीन था।

 

भैया काम पर चले जाते।भाभी उससे घर के सारे काम करवाती थी।तब भी उसे आलु की सब्जी और परांठे
बहुत पसंद थे।भाभी बनाती भी अच्छा थी।पर इसी बात पर लडाई भी हो जाती कि काम तो कुछ करना नहीं और परांठे तो मन मन भर खाना है….वह रो पडता.तब मां की बडी याद आती.

-“ए जी कहाँ खो गये.एक परांठा और लिजिए न…।”-आंँखो की कोर से छलक आये आंँसुओं को पीकर ना कही।पत्नी ने स्नेह भरे हाथ कंँधों पर रख ढ़ाढ़स दी…अब तो सब ठीक है..। वे हाथमुंह धोने वाशबेसिन और बढ गये।भतीजा बडे चाव से परांठे खाने मे मशगूल था।

 एक आम आदमी की चिंता

भारत सरकार के उपक्रम में अड़तीस वर्ष कार्य करने के उपरांत वे अच्छी पोस्ट पर रह कर सेवानिवृत्त हुए। घर बन ही गया था।बच्चे पढ़लिख कर अपनी अपनी जाब में वेलसेटिल्ड थे। वे अपने पुराने शहर में ही रहते थे।सब ठीक चल रहा था।एकाएक वैश्विक बीमारी ने सब कुछ तहसनहस कर दिया।सामान्य जीवन जीना कठिन हो गया।

बच्चे सब दूरदूर थे।छोटा एक राज्य में अकेला था।पोता भी नानाजी के घर था। वे हमेेेंशा चिंतित रहते,बच्चे क्या कर रहे होंगे।ठीक से खाना तो खाया होगा न।ईत्यादि।पत्नी समझाती,सब बड़े हो गये है ।सब ठीक से है।

उनका मन न मानता।उनका यह सोचना था कि ऐसे कठिन समय में सब साथ साथ होते।व्यवहारिक रूप से यह संभव न था।सभी की अपनी जाब थी।वे घर से ही कार्य कर रहे थे। जीवन भर वे एक सिद्धांत के तहत जीये थे।सर्विस भी पूरी निष्ठा व ईमानदारी से की थी।कभी स्वाभिमान को ठेस पहुंचने न दी थी।

महेश राजा की लघुकथा “शाम की थकी लडकी” के अलावा पढिए अन्य लघुकथा

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अधिकतर घर पर ही रहना होता था।अब तो उन्होंने अखबार पढ़ना और टीवी देखना भी बंद कर दिया था।पर,आँख मूंद लेने से सच्चाई छिप थोड़े ही सकती है। इस बीच विश्व में आगजनी,एक्सीडेंट, भूंकप,एम्फान तूफान फिर हवाई दुर्घटना आदि के मामले बढ़ते ही जा रहे थे।प्रकृति सचमुच नाराज थी।

आज ही पत्नी बता रही थीटीवी पर विष्णु पुराण में जलप्लावन और मनु की कहानी चल रही है।शाम की प्रार्थना में उन्होंने प्रभु के आगे हाथ जोड़े।विनंती की कि हम जैसे पुराने लोग जिन्होंने दुनिया भलीभांति देख ली है,उन्हें उठा ले।किन्तु नयी पीढ़ी,जिन्होंने अभी अभी चलना शुरु किया है ,उन पर रहम कर।।

फोन पर छोटा अपनी मम्मी को कह रहा था,पापा कुछ ज्यादा ही सोचते है…।हम सब ठीक से है।उनसे कहो कि वे हम सबकी चिंता न करे,और स्वयं के स्वास्थ्य पर ध्यान देवें।और अकेले हमारे साथ ही ऐसा नहीं हो रहा।सभी परेशान है।उन मजदूरों का सोचिये,जिन्हें न सर पर छत है न खाने को रोटी।

रात जब वे भोजन करने बैठे तो फिर वही ख्याल सता रहा था,बेटा बहु कैसे होंगे,पोता ठीक तो है न।और छोटे ने क्या कुछखाया होगा? भोजन में रूचि न थी।मन मार कर थोडा़ सा भोजन कर वे उठ गये।पत्नी की बात फोन पर बच्चों से हो रही थी।उनका ध्यान वहीं था।फोन रख कर पत्नी सब बतायेगी कि सब ठीक है…तब वे सो सकेंगे।

 जरूरत

हेतल मेम का फोन आया था।उसे घर बुलाया था।रूपा ड़र रही थी।दो माह से ज्यादा हो गये,न वह जा पायी थी और न ही हेतल मेम ने बुलाया था। रूपा परेशान थी।पति का काम छूट गया था।घर पर दो बच्चे थे।महामारी के कारण सब कुछ उजड़ गया था।कहीं भी काम पर नहीं जा पारही थी।हेतल दीदी ने स्वयं ही मना किया था।जब सब ठीक होगा तब बुला लूंगी।

एक माह तो सब ठीक चला।फिर एक अंतिम गहना हाथ की चूड़ी थी ,उसे बेच कर घर खर्च चलाया। सुबह ही निकल पड़ी थी।बाद में धूप तेज हो जायेगी।मुँह पर दुपट्टा बाँध रखा था।सोच रही थी।इतने दिन तक तो मेम ने याद नहीं किया,आज मेरी जरूरत होगी ,तभी बुलाया है…पर वह साफ मना कर देगी।अभी काम नहीं कर पायेगी…

रूपा हेतलजी को दीदी ही कहती।दरवाजे पर बेल बजायी।दीदी ने ही दरवाजा खोला।रूपा ने नमस्ते कहा।हेतलजी ने उन्हें भीतर लेजाकर बैठने को कहा। पानी का गिलास लेकर हेतलजी आयी।रूपा ने पानी पीकर कहा,-“दीदी…घर पर दो बच्चें है।उसके बापू भी घर पर ही है।अभी तो मैं….

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रूपा के कुछ कहने से पूर्व ही एक लिफाफा हेतलजी ने उसे थमाया और कहा,-“तुम्हें जरूरत होगी न…इसलिए बुलाया था।असल में साहब की सैलरी आज ही आयी है।” हेतल जी भीतर गयी।रूपा ने काँपते हाथ से लिफाफा खोला,उसकी दो माह की सैलरी थी।उसकी आँखों से टप..टप..आँसू टपक पड़े।वह क्या क्या सोच रही थी और…।

हेतल जी चाय के दो कप लेकर आयी।रूपा चुप थी।कुछ कह न पा रही थी। चाय समाप्त कर रूपा कप लेकर किचन की ओर जा ही रही थी कि हेतलजी ने कहा,अब जाओ…बच्चे तुम्हारी राह देख रहे थे। रूपा ने हाथ जोड़ दिये।वह बाहर आ गयी।ईश्वर भी किस किस रूप में सामने आते है।दो माह का मकान किराया चढ़ गया था।राशन भी लगभग खत्म था।उसने लिफाफा हाथों में भींचकर माथे से लगाया और तेज चाल से घर की ओर जाने लगी।

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