महासमुंद-जिले के प्रसिद्ध लघुकथाकार महेश राजा की लघुकथा उत्सव,पिकनिक,ठहराव,नशा व् पेट और प्रार्थना सुधि पाठकों के लिए उपलब्ध है।
उत्सव
आज बहुत सुबह नींद उड़ गयी।पांच बज गये थे।उन्होंने बिस्तर छोड़ दिया।हमेंशा की तरह घर के सारे दरवाजे खोल दिया।सुबह की पवित्र खुशबू दार हवा ने नाक में प्रवेश किया।अच्छा लगा। आज का दिन बड़ा पावन है।हिंदु नव वर्ष,गुड़ी पड़ला,बैशाखी और चैत्र नवरात्रि। इन दिनों के जो हालात है,उसने त्यौहार की परिभाषा ही बदल दी है।अब तो मोबाइल बताता है कि आज कौन सा पर्व है।
वे सोच रहे थे नल आ जाये तो स्नान कर घर पर ही पूजा पाठ करेंगे।मंदिर तो इन दिनों बंद है। कुंए के पास रखे गमलों में तुलसी का पौधा लहरा रहा था।उस पर मांजर भी आ गये थे।वे खुश हो गये,अपनी मित्र रीमा याद आ गयी,जिसने यह गमला दिया था। पहले वे पूरी नवरात्रि उपवास करते थे।इस बार पत्नी जी ने साफ कह दिया,एकम,पँचमी और नवमी का रखना है,वो भी एक समय का।वू शाँति प्रिय है।मन में कहा जैसा माता को मंजूर।
वंदे भारतम्-नृत्य उत्सव का फाइनल 19 दिसंबर को नई दिल्ली में
नहाकर गमलों में पानी ड़ाल रहे थे कि पोता कृष आ गया,चावल की कटोरी लिये।वे रोज कुंवे के पास चावल और पानी रखते।नन्हीं गौरेयाऐं उड़कर आती।चीं चीं से वातावरण को खुशनुमा बनाती। कृष पूछ रहा था,दादा जी ये चिडिय़ा लोग कभी उपवास नहीं करते।वे हँस पड़े।जवाब दिया,बेटा तुम्हारे जैसे दयालु मिल जाये तो वे दाना चुग लेते है।वरना तो उनका उपवास ही है।
घर पर आज खूब तैयारियां चल रही थी।बाहर से कुछ ला नहीं सकते थे।लाक डाउन जो था।घर में उपलब्ध चीजों से ही गुजारा कर रहे थे। तभी कृष फिर आया बोला,दादा,मैं भी उपवास करूंगा।दादी साबुदाना की फलाहारी खिचड़ी बहुत अच्छा बनाती है।उन्हों ने स्नेहवश कुश के माथे पर हाथ फेरा।कहा,दादी तुम्हें भी फलाहारी खिचड़ी जरूर परोसेगी।
उन्हें बचपन के गंजपारा में किराये के मकान में दिन याद आ गये।बा बापुजी,छह भाई,बहन।सब मिल कर रहते।हर त्यौहार को उत्सव की तरह मनाते।अभाव जरूर था।पर,मन में भाव बहुत था।तब बड़े भैया कहते,हम लोगों की एक फलाहारी थाली की कीमत से एक व्यक्ति चार बार भोजन कर सकता हे।बा ढ़ेर सारी चीजें बनाती।
तब वे भी उपवास का बहाना करते।पहले फलाहारी खाते फिर सामान्य भोजन भी।
पत्नी की आवाज से वे तंद्रा से लौटे।उन्हें माला और पाठ करना था। स्थितियां विपरीत थी।पर,रह रह कर रीमा की बातें याद आ रही थी,वह हमेंशा कहती,दिन विपरीत हो सकते है,परिस्थिति याँ भी खराब हो सकती है,पर हमें हर दिन को एक उत्सव की तरह जीना चाहिये।सुख-दुःख,जन्म-मरण यह तो आते जाते है।हमें अपने भीतर के एहसास को हर हाल में जिंदादिल रखना है।
वे मुस्कुरा उठे।कितना सच कहती थी रीमा।जब तक साँसे चल रही है,,जीवन एक उत्सव ही तो है। पास से ही कृष के खिलखिलाने की आवाज आ रही थी।
पिकनिक
पिताजी टेलीफोन विभाग में कर्मचारी थे। तनख्वाह ज्यादा नही थी, मगर अपने दोनो बेटो को राजा की तरह रखते। अच्छे कॉन्वेंट विद्यालय में दोनो बच्चो को भर्ती किया था। उस साल छोटा चौथी में गया और बड़ा छठी कक्षा में।
सर्दी का मौसम चालू हो गया था। एक दिन विद्यालय से घर आकर भोजन करते समय दोनो बच्चो ने बड़ी ही खुशी से मा बाउजी से कहा, हमारी शाला से तीन दिन बाद पिकनिक में जाने की योजना बनी है। हमारे टीचर ने हमे 300 रुपये लाने को कहा है दोनो के लिए, अगर पिकनिक में जाना हो तो। बड़े और छोटे दोनो ने कहा हमे जाना है अम्मा बाउजी। बाउजी ने कहा अच्छा ठीक है पहले दोनो खाना तो खा लो, मैं तुम दोनो को कल सुबह पैसे देता हुं, और सभी मुस्कुराकर खाने लगे। अम्मा ने बड़ी ही बेचैन सी नज़रो से बाउजी की ओर देखा, बाउजी जी ने अपनी आंखें झपकाकर तसल्ली रखने को कहा।
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शाम को दोनो बच्चे खेलने चले गये। माँ बाउजी से कहने लगी महीने के अंत में 300 रुपये कहां से लाएंगे। इस महीने खर्चा भी थोड़ा ज्यादा हो गया है। आपकी चप्पल भी टूट गयी है, नयी चप्पल 150 से कम में ना आयेगी। बाऊजी ने कहा अरी भागवान चिंता क्यों करती हो, इस महीने चप्पल नही लेते, किसी तरह काम चला लेंगे। ये कहकर बाऊजी मुस्कुराये और दोनो चाय की चुस्कियां लेने लगे। बड़ा बेटा किसी कारणवश घर जल्दी आ गया था और ये सारी बातें दरवाजे के पीछे छुपकर सुन रहा था। उसकी आंखों में आंसू आ गये की अम्मा बाउजी हमारे सुख सुविधाओं के लिए कितना त्याग करते हैं।
अगले दिन सुबह बाऊजी ने 300 रुपये बड़े के हाथ में दिये और कहा सर को दे देना और खूब आनंद करना पिकनिक में। बड़े ने 150 रुपये वापस करते हुए कहा, अरे बाऊजी पिकनिक में छोटे को जाने दो, मुझे परीक्षा की तैयारी करनी है, मैं अगले साल चला जाऊंगा। कही ना कही बाउजी ने बड़े बेटे की आंखों को पढ़ लिया और मंद ही मंद मुस्कुराने लगे की आज मेरा बड़ा वाकई में बड़ा हो गया हैं।
दोनो बच्चे विद्यालय चले गये। बाउजी ने मा से कहा अगले साल पहले से ही दोनो बच्चो की पिकनिक के पैसे जमा करके रखेंगे नही तो बड़ा फिर से कोई बहाना बना लेगा।
ठहराव
घर में दो प्यारे बच्चे थे।उन्हें पेरेंट्स से शिकायत थी कि पापा मम्मी हमेंशा डाँटते रहते है.प्यार नहीं करते।जबकि दूसरों से बहुत अच्छा व्यवहार करते है।
घर की महिला को अपने पति से शिकायत थी।अब वे प्यार से पेश नहीं आते,जबकि मुहल्ले की सारी महिलाओं से अदब से पेश आते है।
बच्चों को दादा पसंद थे।वे सबको समान प्यार करते।उनके मित्रों से भी स्नेह से पेश आते है।
बच्चों से दादा को जब यह पता चला,दादा ने वादा किया कि वे सबसे बात करेंगे।आगे उन्होंने कहा,बच्चों माता पिता तुम्हारा भला चाहते है,इसलिए कभी कभार डाँट देते है।वे दोनों दिन भर काम करते है न।सो थक जाते है।उनकी बात का बुरा नहीं मानना, और अच्छे बच्चों की तरह व्यवहार करें.फिर सब तुम लोगों से प्यार करेंगे।
नशा
बहुत दिनों बाद उनसे राजमार्ग पर बने उद्यान के पास मुलाकात हो गयी।उनके हाथ में एक गुलदस्ता था।
अभिवादन की औपचारिकता के बाद उनसे पूछा-“क्या बात है आजकल आप न सभा में दिखते है न रैली में।अखबार में भी आजकल आपकी फोटो नहीं दिखती।राजनीति से संन्यास ले लिया है क्या?
पहले वे थोड़े अकुलाये फिर सहज होकर बोले-“नहीं भैया,ऐसी कोई बात न ही है।आप तो देख रहे है आजकल हर पार्टी में खाली चापलूसी की कदर हो रही है।अवसर देखकर दल बदलने वाले भी खूब हो गये है।तो थोड़ा अंतराल लिया था।”
-“वैसे भी देश के हालात कुछ ठीक नहीं।”-,इस बात को वे इतनी उतेजना से बोले कि लग रहा था,वे इसे ठीक कर के ही रहेंगे।
-“सुबह सुबह,इस तरफ?”
पूछने पर वे उत्साह से बोले-“दिल्ली से एक बहुत रसूख वाले नेताजी पधारे है।उनकी पहुंच दूर दूर तक है।जाकर उसने गुरूमंत्र और आशीर्वाद ले लेता हूँ।ताकि आगे अवसर आने पर राजनीति में मैं भी अपने पांव पसार सकू।”
इसी मिलेजुले भाव लिये वे वन विभाग के रेस्टहाउस की तरफ बढ़ गये।
पेट और प्रार्थना
आठ नौ वर्षीय बच्ची ने इधर-उधर देखा।चौक वाले मंदिर पर कोई न था। धीरे से भीतर गयी।भगवान जी को नमन किया।थोड़ी देर पहले ही एक भक्त केला और मिठाईयां रख कर गया था।
बच्ची ने दो केले और एक मिठाई उठाकर भगवान जी से प्रार्थना की,-“मुझे माफ करना भगवन।घर पर माँ बीमार है,दो दिन से काम पर नहीं जा सकी।छोटा भूखा है।आपका प्रसाद समझ कर ले जा रही हूँ।”
रूककर धीरे से बोली-“एक विनंती है,अगली बार जन्म देना तो बिना पेट के मुझे घरती पर भेजना।जब भूख लगती है न तो पेट बहुत दुःखता है।”
जीवन परिचय-
जन्म:26 फरवरी
शिक्षा:बी.एस.सी.एम.ए. साहित्य.एम.ए.मनोविज्ञान
जनसंपर्क अधिकारी, भारतीय संचार लिमिटेड।
1983 से पहले कविता,कहानियाँ लिखी।फिर लघुकथा और लघुव्यंग्य पर कार्य।
महेश राजा की दो पुस्तकें1/बगुला भगत एवम2/नमस्कार प्रजातंत्र प्रकाशित।
कागज की नाव,संकलन प्रकाशनाधीन।
दस साझा संकलन में लघुकथाऐं प्रकाशित
रचनाएं गुजराती, छतीसगढ़ी, पंजाबी, अंग्रेजी,मलयालम और मराठी,उडिय़ा में अनुदित।
पचपन लघुकथाऐं रविशंकर विश्व विद्यालय के शोध प्रबंध में शामिल।
कनाडा से वसुधा में निरंतर प्रकाशन।
भारत की हर छोटी,बड़ी पत्र पत्रिकाओं में निरंतर लेखन और प्रकाशन।
आकाशवाणी रायपुर और दूरदर्शन से प्रसारण।
पता:वसंत /51,कालेज रोड़।महासमुंद।छत्तीसगढ़।
493445
मो.नं.9425201544
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