महासमुंद-जिले के प्रसिद्ध लघुकथाकार महेश राजा की लघुकथा वरदान,उसने कहा था,अब के रविवार,आगामी चुप्पी, और वरदान सुधि पाठकों के लिए उपलब्ध है।
वरदान
बसंत पर्व पूरे यौवन पर था।प्रकृति ने ऋतुओं के राजा के स्वागत में अपनी सारी कलाएं बिखेर दी थी। पलाश अंँगडाईयाँ लेता हुआ अपने यौवन पर इठला रहा था।साथ ही थोडी ही दूरी पर खडे बूढ़े बबूल पर व्यंग्य के तीर चला रहा था। बबूल उसकी नादानी पर दुःखित हो रहा था।पर ,जैसा कि हमेंशा से होता आ रहा है।बुजुर्गों की बात नयी पीढी कहाँ सुनती है?
पलाश कह रहा था,”-देख लो.मेरा यौवन कैसा खिल रहा है।हमेंशा मेरे ही फूलों का उपयोग कर सभी फाग खेलते है।और तुम….हूँ…ह…तुम्हें तो कांँटों के कारण कोई छूना भी पसंद नहीं करते।”
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बबूल ने एक उसाँस ली,”-इसमें नया क्या है बेटा?पर ,यह प्रकृति का यह अटल नियम है।ऋतु बदलने पर तुम मुरझा जाओगे।मेरा क्या है।अनादि काल से ऐसा ही हूँ।मेरा अपना उपयोग है।इसलिये घमंड मत करो।इसे प्रकृति का अनुपम वरदान समझ कर स्वीकार करो।खुशियाँ मनाओ और सच्चाई को समझो।जीवन,मृत्यु. फलना,झडना. यह संसार का नियम है। सभी को यह सच स्वीकार करना ही होगा। पलाश ने सिर झुका लिया।
उसने कहा था
उम्र के जिस पड़ाव से गुजर रहे थे,वे,उस समय एक ठहराव सा आ जाता है जीवन में,सब कुछ शांँत जल- सा स्थिर हो जाता है। हाँ,स्मृतियां मन को चुभलाती है,बहलाती है।दंश देती है तो कभी पीड़ा और मीठा मीठा दर्द भी।मन में कभी किसी अनजानी भूल के प्रति पछतावा भी आता है तो कभी मन मयूर नाच भी उठता है।
आज रात भर स्वप्न में पुरानी यादें हिलोरें लेती रही।वे सुख दुःख के भंँवर मे तैरते रहे। जवानी के दिनोँ की बात।संँधर्ष चल रहा था।कुछ बनने की चाह।पर, सारे पासे उल्टे ही पड रहे थे।
उन्हीं दिनो उनके जीवन में वर्षा अचानक से आ गयी थी।कुछ ख्वाब महकने लगे थे।दिन पंख लगा कर उड़ रहे थे। वेदोनों एक दूसरे को बेईन्तिहाँ मोहब्बत करते थे।पर,केरियर आड़े आ रहा था।
कोई साथ देने वाला भी न था।फिर एक छोटी सी नौकरी मिली थी।पर उस लड़की के पिता के ख्वाब ऊंचे थे।वे इस रिश्ते के लिये कभी तैयार न होते। कुछ लोगों को उनका साथ राश न आया।उसकी तो जैसे दुनिया ही उजड़ गयी थी।तब समझ भी न थी।उम्र भी कच्ची थी।
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लेकिन उनका बिछुडना तय था। वह एक भीगी भीगी सी शाम थी।दोनों हमेंशा की तरह उस एकांत मोड पर मिले थे।दोनो ही दुःखी थे।जानते थे कि अब मिलना न हो सकेगा। वर्षा अचानक उसके गले से लग गयीथी,भीगे स्वर में बोली थी,-“विकी,तुम्हारे बिना रह पाना अब बहुत कठिन है।”
वह चुपचाप था।क्या कहता,जानता था,अब कुछ हो नहीं सकता था। वर्षा उसकी जिद जानती थी।कि वह भी उसके बिना जी नहीं सकेगा।इसलिए बोली-“आज एक वादा चाहिए मुझे आपसे.आपको मेरी कसम।आप.. शादी ..कर लिजियेगा।बहुत कठिन स्वर में वह बोली थी।उसका स्वर भीगा हुआ था।।वह अवाक सा उसे देखता रहा।भीगे कंठ से बोला – यह तुम कह रही हो…,फिर..तुम…..तुम्हारा ..क्या होगा?”
कातर स्वर में वर्षा ने कहा था,.-“..मैं….. मेरा क्या?।लडकियोंकी कोई मरजी नहीं होती….जहांँ घर वाले , ब्याह देंगे, चली जाऊंगी।”..फिर वर्षा रूकी न थी।आंँखों में ढ़ेर सारे आंँसू लिये भागती चली गयी थी। और…वह.. बहुत देर तक स्तब्ध वहीं खड़ा रहा था।वह जानता था कि अब वो.हमेंँशा के लिये अकेला हो गया था।
फिर जैसा कि अधिकतर होता चला आया है। घर के लोगों ने एक सामान्य परिवार की लड़की से उसका रिश्ता कर दिया. उसने चुपचाप ब्याह कर लिया था,क्योंकि उसने कहा था……..।
अब के रविवार
शीर्षक पढ कर मेरे सुधीजन पाठक नाराज हो सकते है,मेरे जागरूक आलोचक मित्र भी इस पर टिप्पणी कर सकते है। उन सबसे मेरा विनम्र निवेदन है कि यह मेरे अपने विचार है,इसे मैं किसी पर थोपना नहीं चाहता।बस बैठे बैठे विचार आया तो लिख दिया।
बचपन मे जब छात्र हुआ करते थे,तब रविवार का अर्थ आजादी।आराम से उठना मटर गश्ती करना।खाना पीना हुआ करता था। कालेज के दिनों मे रिलेक्स, पिकनिक या एकाद फिल्म देखने चले जाना। घर मे सब साथ होते तो खूब हंँसी मजाक, मनोरंजन। थोडे बड़े हुए।सर्विस मे आये तो रविवार मतलब दिन भर घर के काम काज।पिछले हफ्ते के पेन्डिंग घरेलू काम का निपटारा।
जब बच्चे हो गये तो रविवार उनके अनुसार होने लगा।उनकी पसंद का खाना,घूमना,शापिंग इत्यादि। बच्चे बड़े होकर पहले पढने निकल गये तो अकेलापन, ऊबाऊ,।दो जनों का क्या खाना क्या पीना।कुछ भी चला लिये।फिर किसी रविवार उनसे फोन पर बात होती तो रात को उनके कमरे का अकेलापन, खालीबिस्तर देख कर आंँखोँ से आँसू आ जाते।
पर शायद इसी का नाम जीवन है।धीरेधीरे बच्चों की सर्विस,उनकी पोस्टिंग फिर शादी,,,,फिर बच्चे।।।और फिर वही नितांत अकेलापन…..

अब सेवानिवृत्त हो गये है तो सुबह दैनिक भ्रमण फिर बाजार सौदा सुलफ,मंदिर।भोजन कर सो जाना।शाम को फिर टहलना,टीवी,बच्चों से बाते ,भोजन सो जाना।लगता है कोई काम ही नहीं बचा।ऐसे में क्या रविवार? हां साल मे दो तीन बार बैंगलोर, गुजरात जाना होता है तो फिर कभी कभी पुराने रविवार लौट कर आ जाते है।
देखते देखते जीवन के बांसठ बसंत गुजर गये।अब तो मानो वक्त कट रहा है।कभी लेखन,पठन,कभी भ्रमण। पर पुराने रविवार की बहुत याद आती है।तभी तो फिर कह उठता हूँ,- अब रविवार उतने शानदार नहीं होते।’
आगामी चुप्पी
स्कूल से आते ही केवल ने जूते और बस्ते को एक तरफ फेंका।फिर मेज पर रखा मम्मी का मोबाइल उठाथा और गेम खेलना शुरु कर दिया। राशि कामकाजी महिला है।उसे अनेक काम थे।उसने केवल को आवाज लगा कर कपड़ें बदलने और हाथ-मुँह धोने के लिया कहा।
केवल ने अनसुना कर दिया।उसका पूरा ध्यान मोबाइल पर था। राशि ने दूध गर्म कर उसमें बोर्नविटा मिलाया और फिर से केवल को आवाज दी।केवल भीतर के कमरे में बिस्तर पर पसर कर गेम खेल रहा था।
राशि सुलझी महिला थी।वह ड़ाँट-फटकार या मारपीट में विश्वास न ही रखती थी।वह दूध का गिलास लेकर भीतर के कमरे में पहुँची।केवल को मोबाइल में उलझा देखकर बोली,”यह क्या बेटा आपने कपड़े भी नहीं बदले और हैंडवॉश भी नहीं कियाऔर मोबाइल हाथ में ले लिया।यह ठीक नहीं।”
केवल बेध्यानी में कह उठा-“आपको क्या? राशि ने पूर्ण संतुलन से कहा,”बेटे हम आपकी मम्मा है।हमें तो आपकी परवाह रहेगी न।दिन भर मोबाइल पर नजरें रमाये रखने से आँखें खराब हो जायेगी।फिर आँखों में मोटे मोटे चश्मे लग जायेंगे।चलिये,अब हाथ-मुँह धो लिजिये।”
इस बार केवल ने मोबाइल बंद कर गुस्से से पलंग पर पटका और कहा-“आप भी तो दिन भर मोबाइल पे रहती हो ,आपको कुछ हुआ?फिर हमें क्यों डाँटती हो और मना करती हो।”
इस पर राशि मौन हो गयी।वह इस बात का क्या जवाब देती? अगर चे कहती कि उसेम मोबाइल पर बहुत सारे काम करने पड़ते है, इस बात कोआज की पीढ़ी स्वीकार कर पाती?शायद नहीं!
परंतु बच्चे के लिये क्या सही है क्या गलत। इसका निर्धारण और हल माता- पिता को ही करना है।यह कठिन जरूर है।एक यक्ष प्रश्न की तरह भी है।पर,हम सबको इसका हल ढ़ूंढ़ ना ही होगी।नहीं तो हमेंशा के लिये चुप्पी साध लेनी होगी।भावी चुप्पी जो बड़ी धातक है।
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