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आत्मिक अनुभूति,कभी भी, पेट की खातिर, मैं जरूर आऊंगी मेरे बच्चों-लघु कथा महेश राजा की

रीमा ने एक दृष्टि चारों तरफ घुमायी।उसके द्बारा सेवित फूल पौधे मुस्कुरा रहे थे।उसने मेहनत से आज पूरी छत साफ की थी।उसे धोया था।वह नीचे जाने वाली ही थी

प्रसिद्ध लघु कथाकार महेश राजा की पढ़िए लघुकथा

महासमुंद- जिले के ख्यातिप्राप्त लघुकथाकार महेश राजा की लघु कथाए आत्मिक अनुभूति,कभी भी, पेट की खातिर, मैं जरूर आऊंगी मेरे बच्चों सुधि पाठकों के लिए उपलब्ध है ।

आत्मिक अनुभूति..रीमा ने एक दृष्टि चारों तरफ घुमायी।उसके द्बारा सेवित फूल पौधे मुस्कुरा रहे थे।उसने मेहनत से आज पूरी छत साफ की थी।उसे धोया था।वह नीचे जाने वाली ही थी कि उसकी नजर कोने में बने एक वाशरूम पर पड़ी।खुला,दरवाजा विहीन।चारों तरफ गंदगी का साम्राज्य था।उसने मन ही मन एक निर्णय लिया। नीचे आकर सबके लिये नाश्ता बनाया।उसके बाद बाल्टी,झाडू,मग,हारपिक और फिनायल लेकर छत पर पहुंची।

आज बुधवार था। रीमा हर बुधवार या रविवार को मन से कुछ अलग करती।उसे अपनी प्रिय सखी वैशाली की बात याद आती कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता।मन को जो अच्छा लगे,वही करना चाहिये।साथ ही बापा की भी याद आती जिन्होंने उसे पौधों से लगाव और सफाई पसंद बनाया।

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वे जब यहाँ किराए में रहने आये तो देखा कोठी तो बड़ी है,परंतु गंदगी बहुत थी। धीरे धीरे रीमा ने स्वयं अपने हाथों से सब साफ किया।वह रोज अपने द्बारा किये सफाई अभियान को देखती मन ही मन खुश होती। वह यह सब छिप कर करती।उसे श्रेय की जरूरत न थी।।रीमा के पति भी नाराज होते।परंतु रीमा को यह काम कर सुकून मिलता।

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दो घंटे के अनथक प्रयास के बाद उसने पुराने वाशरूम को चमका दिया।पानी की व्यवस्था की।बाल्टी,मग और हैंडवॉश रखा। वह जानती थी कि उसके इस कार्य से किसी को कोई खास मतलब न होगा।परंतु जो कामगार या मजदूर काम करने आते है,उन्हें थोड़ी सुविधा मिल जायेगी।उसने एक निर्णय और लिया कि कल ही बढाई को बुलाकर एक दरवाजा बनवा देगी। रीमा सबकुछ निहार कर प्रसन्न मुद्रा म़े कालेज जाने को तैयार होने लगी।होंठों पर राधाजी का भजन चल रहा था।

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कभी भी..

आज कमल नाथ जी की तेरहवीं थी।कमला जी की सहेली आशा मिलने आयी हुयी थी। पिता की मृत्यु के तुरंत बाद बेटा-बहु जो अलग रहते थे,साथ रहने आ गये थे। एकांत में आशा ने कमला से कहा,-भावना में बह कर तुरंत पुश्तैनी मकान बेटे के नाम मत कर देना।बच्चों का भरोसा नहीं।कब उनका मन बदल जाये,और कभी भी ….आश्रम का रास्ता दिखा दे।

 पेट की खातिर

ट्रेन रूक गयी थी।उसकी मंझिल आ गयी थी।सूटकेस उठाकर वह बाहर आ गया। काफी बदल गया था शहर।एक तरफ आटो रिक्शा वाले खड़े थे तो एक तरफ सायकिल रिक्शा। जिस स्थान पर उसे पहुँचना था,वह स्टेशन से दूर था।अकेली सवारी का आटो वाले ज्यादा रूपया मांग रहे थे।उसने एक सायकिल रिक्शा वाले से पूछा,रिक्शेवाले ने सतर रूपये बताये जो उसे ज्यादा लगे।वह पचास रूपये देने को तैयार था।रिक्शेवाले ने कहा-“बहुत दूर है साहब,इससे कम में कोई नहीं तैयार होगा।”

वह थोड़ा आगे बढ़ा।मन हो रहा था एक प्याली चाय पी लें तो सफर की थकान दूर हो जाये। तभी सामने से एक बूढ़ा रिक्शा वाला बाबा आ पहुंँचा।बोला-“कहाँ जाना है बाबू ,आओ बैठो, छोड़ दूं।”उसने जगह का नाम बताया तो बाबा बोला-“सतर रुपये किराया होता है।” उसने ना कही।इस पर बाबा बोला-“इस शहर में नये लगते हो।अच्छा तुम कितना दोगे?”

उसने बताया-“पचास रूपये।”बाबा बोला-“बैठो,भाई।पहुंँचा देता हूँ।”गमछे से माथे पर आये पसीने को पोंछकर बाबा ने रिक्शा आगे बढ़ा लिया। आधी दूर पहुंँचे होंगे तो युवक ने प्रश्न किया-“बाबा,बूढ़े हो ,थके भी दिखते हो।जब वहांँ तक का किराया सतर होता है तो तुम पचास में क्यों तैयार हुए?”

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बाबा साँस लेने रूका फिर बोला-“बाबू शरीर अभी नहीं थका है,पर यह जो पेट की आग होती है न वह तन और मन दोनों को थका देती है। आज सुबह से बोहनी नहीं हुयी थी।कुछ खाया भी न था।फिर मुझे तुम भी जरूरत मंद लगे। तो तैयार हो
गये। यहाँ कैसे आये?”

पास ही चाय की टपरी दिखी।युवक ने बाबा को रिक्शा रोकने को कहा।चाय वाले से दो चाय और पारलेजी का एक पैकेट लिया।बाबा को दिया।स्वयं भी चाय पीने लगा। उसने कहा-“बाबा,आज यहाँ पर मेरा साक्षात्कार है।मुझे नौकरी की सख्त जरूरत है।मेरे लिये दुआ करना।”

चाय पीकर उसने बाबा के शरीर को देखा तो अपने पिता की याद हो आयी।कुछ सोच कर उसने जेब से सतर रूपये निकाल कर बाबा को देते हुए कहा-“बाबा,आप जाओ।कुछ खा पी लेना।मैं थोड़ा रूक कर जाऊंगा।” बाबा नहीं मान रहा था।स्थान पर पहुंँचाये बिना रूपये न ले रहा था।मुश्किल से जब उसने कहा-“आप मेरे पिता समान हो।तब सिर्फ़ पचास रूपये लेने लगा।युवक ने जिद कर सतर रूपये ही दिये। बाबा ने आसमान की तरफ देखकर हाथ जोड़े मानो वह उस युवक के लिये दुआ मांँग रहा हो।युवक ने भी हाथ जोड़ दिये। रिक्शेवाला बाबा अनेक आशीष देता आगे बढ़ गया.युवक उन्हें जाते देखता रहा।

 मैं जरूर आऊंगी मेरे बच्चों

बच्चों के ईम्तहान का आज आखिरी दिन था।बच्चे खुश थे,आज के बाद दिपावली की छुट्टियां आरंभ होने वाली थी।
दुःखी थी तो स्कूल की आया;ममता। वह एक कोने मे बैठी बच्चों को खेलते हुए देख रही थी।कल से स्कू ल मे विरानी छा जायेगी।

यह बात नहीं थी कि उसका कोई सगावाला न था।उसके दो बेटे थे,जो अलग अलग शहरों मे अपने परिवार के साथ रहते थे।जब किसी को पैसोँ की जरूरत होती या कभी मां की याद आती।नहीं तो कोई मां को त्यौहार पर भी न बुलाते थे।पति की मृत्यु के बाद उसने मेहनत मजदूरी कर बच्चों को पढाया लिखाया और छोटी मोटी नौकरी तलाश कर सामान्य परिवार मे शादी कर दी।सभी को वह खुश देखना चाहती थी।

जीने की वजह ,प्रजातंत्र व् सपनों की पीड़ा- जितेन्द्र कुमार गुप्ता की लघु कथा

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उसे किसी से कोई शिकायत न थी।वह जानती थी.आज का जमाना ऐसा ही है।बहुएं साथ रहना नहीं चाहती।सब घर का यही किस्सा है।अपने नसीब का दोष मान कर नगर के एक प्रतिष्ठित स्कूल मे आया की नौकरी करती,इन बच्चों के बीच अपना मन बहला लेती।कभी पोते पोतियों की याद आती कि वह उन्हें ठीक से गोद मे खिला न पायी।इन्हीं बच्चों को अपना मान खुश रहती।

तभी एक बच्चे के रोने की आवाज से उसकी तंद्रा भंग हुई।वह उस बच्चे को गोद मे बिठाकर चुप कराने लग गयी।सब बच्चे उसे बहुत चाहते थे।उसके साथ घुलमिल गये थे।उसे रोना आ रहा था।दिन भर बच्चों की देखभाल, उनका खाना पीना,साफ सफाई मे मन बहल जाता।।अब कल से वह क्या करेगी…यह सोच उसे सता रही थी।

 

मैडम ने आवाज दी।कि छुट्टी का समय हो गया।बच्चों को भरी नजरों से निहार कर बेल बजाने चली गयी।आंखो से आंसू अविरल बह रहे थे।मैडम ने यह देखा,उसके भाव समझ कर कंधों पर हाथ रख कर सांत्वना दी।गेट खोल कर वह यह ध्यान रख रही थी कि किस बच्चे का रिक्शा अब तक नहीं आया।इतने मे देखती है कि बच्चों की टोली ने उसे घेर लिया,उनके हाथों मे एक पैकेट था।सब बच्चे एक स्वर मे चिल्ला रहे थे,बाई मां इस बार दिपावली मनाने वह उनके ही घर आये,हमने अपने पापा मम्मी से पूछ लिया है।वे भी यही चाहते है।

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उसने सब बच्चों को अपनी ममतामयी बांहों के घेरे मे ले लिया।भरे गले से कहा,आऊंगी,बच्चों, जरूर आऊंगी।उसका गला रूंध गया था।बच्चे जिद करने लगे,नहीं..।अभी चलो ,हमारे साथ।उसने बच्चों को समझाया,स्कूल की रखवाली, सफाई का काम उसके जिम्मे है।समय निकाल कर वह एक एक कर सबके घर आयेगी।बच्चों ने उससे प्रामिस लिया।सबसे छोटी सिद्धि ने जब उसके हाथ मे पैकेट दिया,तब वह बोली,यह क्या है बच्चों। ईस बार सिक्स क्लास का विकी बोला,यह साडी है।हम सबने अपने जेब खर्च से पैसे बचा कर ली है।ना मत कहना।

उसने ना कही।यह मै कैसे ले सकती हूँ।इस पर मैडम बोली,ले लो बाई.बच्चे इतने प्यार से लाये है।उसने एक एक बच्चे को चूमा।जाते समय सिद्धि ने कहा,देख लो बाई अगर तुम घर नहीं आयी तो मै पटाखे नहीं चलाउंगी।”‘नहीं नहीं, मेरे बच्चों मै जरूर आऊंँगी।'”अत्यधिक खुशी से छलक आये आंँसुओं को उसने छलक जाने दिया। सब बच्चे चले गये।गेट पर खडी दूर उड़ती धूल को वह देख रही थी।जीवन मे पहली बार उसे लगा कि वह अकेली नहीं है।

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