महासमुंद-जिले के प्रसिद्ध लघुकथाकार महेश राजा Mahesh Raja की लघुकथा कफन,जश्न,पलायन,उपयोग,अकेलापन व् एहसास सुधि पाठकों के लिए उपलब्ध है।
कफन
माधव मजदूरी का काम करता था।सब के साथ छोटी बस्ती में रहता था।उसका कोई न था।कहते हैं,एक बेटा था ,वह अचानक एक रोज कहीं चला गया ,फिर वापस लौट कर न आया माधव की अचानक मौत हो गयी।सुबह काम ज्यादा था।खाली पेट था।पानी पीकर गिर पड़ा ।माधव के प्राण पँखेरू उड़ गये।
सब चर्चा कर रहे थे- जरूर अटैक आया होगा?एक बुजुर्ग खोखली हँसी हंँसा-बेटा हम गरीबों की मौत अटैक से नहीं होती।हमें तो भूख ही मार ड़ालती है।” सबने मिलकर अंतिम सँस्कार करने का तय किया। दो साथी कफन का कपड़ा लाने बाजार गये।एक ने पूछा-कैसा कपड़ा खरीदें।कोई अच्छा वाला? दूसरा दुःखी स्वर में बोला-कैसा भी ले ले।जीते जी एक धोती में जीवन काट दिया।अब मौत के बाद क्या पहनना और ओढ़ना।
जश्न
चौक पर बहुत भीड़ थी।काफी शोरगुल हो रहा था। पूछने पर पता चला वे गाँधीजी की जयंती मना रहे थे। फूलमाला आदि की औपचारिकता के बाद एक श्वेत वसन सज्जन ने खूब जोशीला भाषण सुनाया।
भीड़ छँट गयी।चुंनीदा लोग बच गये।अब वे आज के कार्यक्रम की सफलता की बात कर रहे थे।सब विश्रामगृह की ओर बढ़ चले। पहले से ही खरीद ली गयी विशेष ब्राँड़ की सुरा उन सब का इंतज़ार कर रही थी। आखिर कार बापू के जन्मदिन की पार्टी जो मनानी थी।
महेश राजा की लघुकथा कान्वेंट कल्चर ,टेढ़ी पूँछ वाला कुत्ता ,उदाहरण व् ए.टी.एम

पलायन
गाँधी भवन से अचानक तीनों बंदर की मूरत गायब हो गयी।लोग हैरान थे। तीनों बंदर मायूसी से धीरे धीरे जँगल की ओर बढ़ रहे थे।जानते थे कि जँगल से उनके जात भाई भोजन-पानी के अभाव में शहर की ओर पलायन कर रहे थे।
परंतु अब उन्हें शहर में आतंकवाद और भ्रष्टाचार का प्रदूषण तकलीफ़ दे रहा था।उनकी साँसे घुट रही थी। जँगल में कम से कम शुद्ध वायु तो नसीब होगी।
उपयोग
आज शनिवार था।सुबह सुबह एक सज्जन गाय और कुत्तो को डबलरोटी खिला रहे थे। पडोसी ने यह देखा तो उन्हें आश्चर्य हुआ।वे तो सोमवार को ही दान देते थे।जिज्ञासा वश पूछ बैठे।
उक्त सज्जन ने सरलता से कहा,डबलरोटी का स्टाक खराब निकला।घर पर या किसी अन्य को तो नहीं खिला सकता था।सोचा जानवर को ही खिला दूँ।
अकेलापन-
बँद गली का आखरी मकान था।चारों तरफ एक अजीब सी खामोशी छायी हुई थी। एक भीड नुमा रैला आया।दरवाजा खटखटाने लगा।यह चुनाव प्रचार करने वाले लोग थे।आज घर घर पहुंच ने का आखरी दिन था।कल मतदान होना था।
काफी देर खटखटाने के बाद दरवाजा खुला।एक कृशकाय शरीर वाली बुजुर्ग महिला प्रगट हुई।प्रश्न वाचक नजरों से सबको देखने लगी।
एक ने हिम्मत कर कहा,दादी वो कल चुनाव है तो…। वह मौन रही। फिर किसी ने कहा,-“आपको कोई काम हो ‘हमारे लायक सेवा हो तो बताये।”
वह शून्य में देखते रही। काम…सेवा…नहीं!फिर पथरीले स्वर में बोली,-“सेवा करनी हो तो अपने माँ -बाप की करना.. अब…जाओ ..तुम लोग।। हो सके तो शोर कम मचाना।दिल की मरीज हूं।जाते समय दरवाजा बंद कर देना।” लाठी टेकते वह भीतर चली गयी। बाहर देर तक एक अजीब सी खामोशी छायी रही…देर तक…
एहसास
साल के शुरुआती दिन।ठंड़ अचानक बढ़ गयी थी। बड़ी सुबह ही कृशकाय महिला तीन छोटे बच्चों के साथ निकल पड़ी थी।वह कबाड़ बीनती,उसे बेचकर चाय और नाश्ता का प्रबंध करती।
बच्चों के शरीर पर नाम मात्र को कपड़े थे।मंदिर के पुजारी ने पूछा,आज मौसम सर्द है।तुम्हें और बच्चों को ठंड़ नहीं लग रही? महिला ने मासूमियत से जवाब दिया,महाराज,भूख और गरीबी के सामने ठंड़ भाग जाती है।मुझे भी आदत थी।बच्चों को भी पड़ जायेगी।
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