महासमुंद:-जिले के प्रसिद्ध लघु कथाकार महेश राजा की लघु कथाए- मौन,आदर्श नागरिक,बडा होने दे मुझे व् भय सुधि पाठकों के लिए उपलब्ध है ।
मौन “क्या बात है,आज बिल्कुल चुप हो।” “कुछ नहीं।बस ऐसे ही।” “नहीं. नहीं. कोई बात तो है।मुझे नहीं बताओगी।”
-“कुछ बात हो तो बताऊं न।” “नहीं, मुझे तुम्हारा मौन रहना खल रहा है।” कभी कभी मौन रहना भी जरूरी है जीवन में
अठखेलियाँ बातों की हर वक्त जरूरी तो नहीं। “तुम टाल रही हो?क्या मेरी किसी बात से खफा हो?” “नहीं..।”
-“देखो,मैं तुम्हारी खामोशी सहन नहीं कर सकता।” “पुरूष हो इसलिये न।क्या नारी अपनी मरजी से चुप भी नहीं रह सकती।” -“यह मैं नहीं जानता।पर,तुम मौन रहो यह मंजूर नहीं मुझे।”
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-“अनादि काल से यह होते आ रहा है।नारी जब छोटी होती है तो माँ चुप रहने को कहती है,फिर शिक्षक और विवाह के बाद पति।उसके बाद बेटा-बहू।यह नारी की नियति है।”पुरूष नारी पर अपना अधिकार समझता है।उसके मौन के मनोविज्ञान को वह क्या समझेगा?क्योंकि मौन होता ही बड़ा विकट है।जिस दिन पुरूष मौन रहने का अर्थ या मौन रहना सीख जायेगी;उस दिन से समाज में क्रांति आ जायेगी और कभी न कभी यह दिन अवश्य आयेगा।” “परंतु आज मुझे मौन रहकर अपने नारी होने का अर्थ समझना है,तो कृपा कर आज मुझे अकेला छोड़ दो।”
आदर्श नागरिक
विक्रम थका माँदा देर शाम थाने से घर पहुंचा।आज ढ़ेर सारे केस आ गये थे। आफिस के सामने मालेबार से फूलों का बुके लेना न भूला। ताजे गुलाब वाले फूल।निशा को बहुत पसंद है। निशा इंतजार कर रही थी।आते ही विक्रम ने उसे विश किया हग कर बुके दिया और वंश के बारे में पूछा।पता चला आया उसे लान में घूमा रही थी।
विक्रम बाथरूम में जाकर डिटोल से नहाया।उसकी आदत थी थाने से आकर तीस मिनट वह वंश के साथ खेलता। निशा गरमागरभ पकौडे और चाय ले आयी।वंश विक्रम की गोद में खेल रहा था। निशा ने विक्रम से कहा,आज मैं आपसे कुछ माँगने वाली हूँ, और यह सब वंश के लिये है।आप देंगे?
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विक्रम ने हँस कर कहा,हाँ,हाँ बोलो न…। देखिये वंश आज छह माह का हो गया है।हर माँ की तरह मैं भी वंश को स्वच्छ वातावरण में पलते देखना चाहती हूँ।वह देश का अच्छा नागरिक बने और खूब नाम कमाये।
आपके साथ की जरुरत है।प्लीज आप शराब पीना बंद कर दे,और गालियों का प्रयोग भी….। निशा डर कर विक्रम को देख रही थी।विक्रम ने वंश का माथा चूमा और वादा किया,मैं हमेंशा तुम्हारे साथ हूँ। वंश खिलखिला कर हँस रहा था।
बडा होने दे मुझे
जब वह गोद मे था,तभी पिता का साया सिर से उठ गया था।मांँ ने ही उसे पाल- पोस कर बडा किया।
पढ़ने मे वह तेज था।साथ ही महत्वाकांक्षी भी।अक्सर मांँ से कहता-“बडा हो जाने दे मुझे,तुझे इतना सुख दूंगा जो आज तक किसी को न मिला होगा।”
तब मांँ बेटे को अंँक मे भर लेती। पहले स्कूल फिर कालेज की पढ़ाई समाप्त कर उसने.बैंक की प्रतियोगिता पास की।मां की आशा फलीभूत हुई।उसने पूरे मुहल्ले को मिठाई बांँटी।अच्छा घर देख कर सुंदर कन्या से उसका विवाह भी कर दिया।
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आर्थिक स्थिति बदली तो बेटे का मन भी बदल गया।अब उसे मांँ की उतनी परवाह न थी।पहले तो सुबह शाम वह मांँ के पास बैठ कर सुख -दुःख की बाते किया करता, अब अधिक तर बैड़़रूम में ही रहता।समय पर आफिस जाता।शाम को चाय के बाद बेटा- बहू सैर सपाटे या पिक्चर देखने निकल जाते। मांँअकेली ही घर पर रहती।
एक दिन किसी काम से रसोई जा रही थी,राह में। ही बेटे का रूम था।वहांँ से गुजरते हुए उसे बेटे की आवाज सुनायी दी,”वह बहू से कह रहा था-“,मै तुम्हे इतना सुख दूंगा,जितना आज तक किसी ने किसी को नहीं दिया होगा।” मां को पंद्रह वर्ष पूर्व बेटे की कही बात याद आ गयी।आंँखों से आंँसू निकल आये। फिर सोचा, इसमें नया क्या है? ,हमेंशा से ही यह होते आया है।एक लंँबी सांँस लेकर वह पूजा घर में चली गयी।
भय
अपने सोलहवें जन्मदिन पर बेटी ने अपने आइडियल पिता से मोबाइल उपहार में माँगा-“पापा,अब मैं बड़ी हो गयी हूँ।मुझे स्मार्ट फोन चाहिये?” पापा की आँखों में चिंता की गहरी लकीर खींच गयी-“बड़ी हो गयी। इसी बात का तो भय है मुझे।”
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