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प्रसिद्ध लघुकथाकार महेश राजा की लघुकथा अपने हिस्से का सुख के अलावा अन्य कथा

रीमा त्यौहार में मायके गयी थी।आज वापसी थी।राज को अचानक सुदूर जाना पड़ा।

प्रसिद्ध लघु कथाकार महेश राजा की पढ़िए लघुकथा

महासमुंद- जिले के ख्यातिप्राप्त लघुकथाकार महेश राजा की लघु कथाए -अपने हिस्से का सुख ,किसकी चिंता ,कोरा कागज,फेसबुक के बहाने,व्यापारी, भूख और मूड  सुधि पाठकों के लिए उपलब्ध है ।

अपने हिस्से का सुख:-रीमा त्यौहार में मायके गयी थी।आज वापसी थी।राज को अचानक सुदूर जाना पड़ा। सुबह आठ बजे मंदिर पहुंच कर राज ने घड़कते दिल से फोन लगाया।रीमा ने उठाया। -कैसे हो राज? -तुम बिन कैसा हो सकता हूँ।तुमसे बात नहीं हो पाती तो अवश सा हो जाता हूँ। अच्छा ,अवि कैसा है? तुम से ढ़ेर सारी बातें करनी है।पर,जानता हूँ व्यस्त होगी।
-नहीं.. नहीं.. कुछ देर कर सकते है। राज ने अपनी कई व्यक्ति गत परेशानी बतायी।फिर सामान्य हो गया।

-राज,एक बात तो है,तुम अपनी जिम्मेदारी पूरी शिद्दत से निभाते हो।तुम्हारे साथ जो भी होगा।खुश रहेगा ही।
राज मन में बुदबुदा या,और मेरी खुशी का क्या? रीमा ने आगे कहा,तुम मेरे यहाँ आ जाओ।मेरी व्यस्तता में हाथ बँटाओ। राज खुश हो गया,सच!क्या ऐसा हो सकता है?

इस बार का जाडा,हमेंशा से,सब कुछ सामान्य, अभिवादन की फिलासफी महेश राजा की लघुकथा

प्रसिद्ध लघुकथाकार महेश राजा की लघुकथा अपने हिस्से का सुख के अलावा अन्य कथा
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प्रत्यक्ष में चुटकी ली-,तुमने यह तो नहीं बताया कि अगर मैं तुम्हारे सारे काम कर दूँ तो एवज में तुम मुझे क्या दोगी?
रीमा एक पल को हिचकिचायी,फिर संयत स्वर में बोली,इतना तो विश्वास है राज कि तुम कोई अनुचित माँग कर मुझे विवश नहीं करोगे।हाँ तुम्हें ढ़ेर सारा स्नेह चाहिये।वो मैं आजीवन देने को प्रस्तुत हूँ।

-अरे,मैं यह कह रहा था। बदले में तुम्हारे हाथ से बनी चाय? -वो तो रोज होगी।दोनों साथ मिल कर पीयेंगे,और जीयेंगे। कुछ पल के मौन के बाद रीमा बोली,-हम दोनों के ही अपने अपने दुःख है।हम समझते भी है।पर,हमारे हिस्से के सुख तो हम आपस में बाँट सकते है न।इस जीवन में जितना स्नेह तुमने दिया है,आज तक किसी ने नहीं दिया।जानती हूँ, मरते दम तक मिलेगा।तुम मुझसे बहुत ज्यादा जुड़ गये हो।शायद!मैं उतना जुड़ नहीं पायी,क्योंकि मेरा तो सब कुछ बँटा हुआ है।तुम निस्वार्थ मुझसे जुड़े हो,यह मेरे जीवन की उपलब्धि है।

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राज-ऐसा मत कहो रीमा,तुमने इतने कम समय में क्या कुछ दे दिया है,शायद तुम कल्पना भी नहीं कर सकती।मुझे अच्छा जीवन जीने का सबब मिला है।बस!तुम सदा खुश रहो।दुःख तुम्हें छु भी न पाये।यही चाहता हूँ।मेरी हर दुआओं में तुम शामिल हो। – अच्छा,समय ज्यादा हो गया।तुम्हें काम पर भी तो जाना होगा।कल फिर बातें होंगी।बा..य..।

 किसकी चिंता:

जंगल में दूर झाड़ियों से जाती बकरी को देख शेर सिंह ने पूछा'”कैसी हो बहन?बहुत दुबली नजर आ रही हो।जंगल में चारा पानी नहीं मिल पाता क्या?” बकरी ने लगभग भागते हुए कहा,”आपको मेरी फिक्र है या अपनी?”

कोरा कागज

उसे डायरी जमा करने का बड़ा शौक था।नयी नयी ड़ायरियाँ। रोज उनमें कुछ न कुछ लिखता,अनकहा…अनछुआ…।परंतु उसकी ज्यादा तर ड़ायरियाँ कोरी थी,उसके जीवन की तरह। फिर भी वह हर बार नयी ड़ायरी खरीदता रहता।अजीब था न वो…..

फेसबुक के बहाने

एक व्यंग्य कार मित्र ने लिखा था कि अगर आप नमन,वाह वाह,खूब,बधाई और शुभकामनाएं शब्द सीख लें,उसका उपयोग करें तो आप फेसबुकिया हुनर में माहिर कहलायेंगे।

आनंद जी ने इस बात को यूँ आगे बढ़ाया कि जिस तरह की पोस्ट का आजकल चलन है।एक श्रद्धांजलि शब्द की और बढ़ोतरी कर दी जायें तो सोने में सुहागा हो जाये।

 व्यापारी

सागर जी उच्च कोटि के कलमकार है।लेखनविधा में चालीस वर्षों से है। एक सँस्था विशेष से उन्हें आनलाइन पुस्तक विमोचन समारोह का आमंत्रण मिला।कार्यक्रम ठीक ठाक था।विरूदावली नुमा। फिर उनसे आग्रह वश दो रचनाऐं मँगायी गयी।उन्होंने स्नेह सहित दो रचनाएं भेज दी।

तुरंत वाटसएप पर उन से प्रति रचना प्रकाशन हेतू सौ रूपयें की माँग की गयी। पेमेंट करने हेतू गुगल पे नंबर दिया गया। उन्हें आश्चर्य मिश्रित दुःख हुआ।आज तक लेखन हेतू उन्हें पेमेन्ट मिला ही था।कोई रचना प्रकाशित करने कभी रकम न दी।

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उन्होंने लिख दिया,इस शर्त पर नहीं। मैंने आपको साहित्यकार समझा था।आप क्या निकले? तुरंत जवाब आया,हम तो व्यापारी है।रूपये लेकर रचना और पुस्तकें छापते है।नये लोग सहर्ष सहयोग देते है।बदले में हम कार्यक्रम आयोजित कर उन्हें वाहवाही दिलवाते है। आप भी शीध्र भेजिये।अंतिम तिथि कल ही है।

भूख और मूडः-

डिनर चल रहा था।लाऊडस्पीकर पर पाप धुन बज रही थी।रात के ग्यारह बजे थे। एक बड़े अफसर ने अपने प्रमोशन अवसर पर यह पार्टी का आयोजन किया था।जलाराम केटरर को हायर किया गया था। बंँगले के बाहर कुछ गरीब प्रतीक्षा मे थे कि कब जूठन बाहर फेंकी जायेगी।

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एक ने अपने साथी से कहा,”क्यों यार,ये साहब लोग खाने में इतनी देर क्यों लगाते है?” दूसरेने जवाब दिया,”अरे,वो साहब लोग है…अपनी तरह नहीं कि जो मिला,भकोस लिया।..अरे भ ई खाने के पहले उन्हे मूड़ बनाना पडता है,समझा….?

लेखक परिचय

महेश राजा
जन्म:26 फरवरी
शिक्षा:बी.एस.सी.एम.ए. साहित्य.एम.ए.मनोविज्ञान
जनसंपर्क अधिकारी, भारतीय संचार लिमिटेड।
1983से पहले कविता,कहानियाँ लिखी।फिर लघुकथा और लघुव्यंग्य पर कार्य।
दो पुस्तकें1/बगुलाभगत एवम2/नमस्कार प्रजातंत्र प्रकाशित।
कागज की नाव,संकलन प्रकाशनाधीन।
दस साझा संकलन में लघुकथाऐं प्रकाशित
रचनाएं गुजराती, छतीसगढ़ी, पंजाबी, अंग्रेजी,मलयालम और मराठी,उडिय़ा में अनुदित।
पचपन लघुकथाऐं रविशंकर विश्व विद्यालय के शोध प्रबंध में शामिल।
कनाडा से वसुधा में निरंतर प्रकाशन।
भारत की हर छोटी,बड़ी पत्र पत्रिकाओं में निरंतर लेखन और प्रकाशन।
आकाशवाणी रायपुर और दूरदर्शन से प्रसारण।
पता:वसंत /51,कालेज रोड़।महासमुंद।छत्तीसगढ़।
493445
मो.नं.9425201544

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