Home आलेख “होली पर निबंध” के अलावा अन्य लघुकथा महेश राजा की

“होली पर निबंध” के अलावा अन्य लघुकथा महेश राजा की

परीक्षा की पूर्व तैयारी चल रही थी।होली का त्योहार नजदीक था,,,

जागी आँखों का सपना के अलावा पढिए अन्य लघुकथा महेश राजा की

महासमुंद-जिले के प्रसिद्ध लघुकथाकार महेश राजा की लघुकथा होली पर्व के लिए खास तौर पर अपने पाठकों के लिए रचित की है । उनकी बेहतीन लघुकथा होली पर निबंध,इस बार की होली और पीछे छूटता हुआ गांव सुधि पाठकों के लिए उपलब्ध है।

होली पर निबंध-

परीक्षा की पूर्व तैयारी चल रही थी।होली का त्योहार नजदीक था।हिंदी के सर ने होली पर निबंध लिखने को कहा।
एक अमीर घराने के कुलदीपक ने कुछ यों लिखा। होली हमारा राष्ट्रीय त्यौहार है।इस रोज स्कूल मे छुट्टी रहती है।सुबह नहा धोकर ब्रेकफास्ट आदि निपटा कर हम टीवी पर पोगो कार्टून चैनल देखने लग जाते है।

फिर कुछ ईन्डोर गेम खेलते है।फिर थोडी देर टीवी पर कार्यक्रम देखते है।मम्मा लंच के लिये आवाज लगाती है।सब मिलकर श्रीखंड पूरी खाते है।फिर आराम करते है।आज के दिन पढाई से मुक्त रहते है। शाम को उठ कर फ्रुट आदि के बाद टीवी पर फिल्म,कार्टून या वीडियो गेम खेलते है।फिर डिनर और रात को हारर फिल्म देखते हुए डर कर सो जाते है।

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होली पर निबंध के अलावा अन्य लघुकथा महेश राजा की
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इस बार की होलीः

इस बार होली कुछ फीकी सी थी।वेतन का समय पर न मिलना,महंगाई का भूत सिर पर सवार साथ ही बजट और बच्चों की एक्जाम का भय। इन सब से उपर पत्नी जी का होली के नाम से चिढना।पता नहीं उसे रंगो से एलर्जी थी।यह क्या कि अच्छे खासे चेहरे को भूत सा बना लिया जाये।

पहले की बात और थी।त्यौहारों का अपना मजा था।होली पर एक सप्ताह पूर्व ही,नमकीन, गुझिया आदि पकवान बनने शुरु हो जाते।मां रात को टेशू के फूल भीगो देती।सुबह उसी केसरिया रंग से खूब खेलते।केमिकल का डर भी नहीं और प्राकृतिक।

थोडे बडे हुए तो जीवन की पहली लडकी ने ईंद्रधनुषी रंग लिये जीवन मे प्रवेश किया।दिन जैसे हवा मे उड जाते।होली के रोज उसे भिगोने की तरह तरह की तरकीबें लगाते।वह भी ऐसी थी कि एक बार जरूर सामने आ जाती।प्यार के रंग निखर जाते।

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स्मृतियों के झरोखों से पुरानी होली की यादों के पलछिन आंखो मे कुछ देर के लिये उतर आये:किसी मनमोहक स्वप्न की तरह।फिर एकाएक दृश्य बदला।वर्तमान की धरातल पर लौट आये। पत्नी जी पुकार रही थी,इस होली मे बाहर निकलोगे कि घर पर रहोगे।बाहर निकलना हो तो पुराने कपडे निकाल दूं।और हां,अजय,विजय :बेटा तुम लोग भी कालोनी मे थोडी देर खेल आना।फिर पढाई भी करनी है।

वह मुस्कुरा पडा।अच्छा लगा वर्तमान, अतीत तो पीछे ही छूट गया था।पत्नी की तरफ स्नेहिल नजरों से देखा,बच्चों को जाने दो.मैं घर पर ही लेखन कार्य करूंगा।पत्नी हमेंशा की तरह एक कुशल गृहिणी की तरह किचन मे चली गयी।नाश्ता और भोजन की तैयारी मे जुट जाने को।

 पीछे छूटता हुआ गांव

ट्रेन ने गति पकड ली थी।टेलीफोन के खंभे ,नदी,पहाड़ सब पीछे छूट रहे थे।विवेकचंद्रजी अपनी पत्नी और दो बच्चे अमित और नीमू के साथ गांव से लौट रहे थे।इस बार की होली जिद करके गाँव में ही मनाने को सोचा था,वरना उनकी पत्नी व बच्चों की ईच्छा जरा भी न थी।

गांव मे माता पिता और छोटाभाई अपनी पत्नी तथा एक बच्चे राजू के साथ रहते थे।अच्छी सर्विस मिल जाने से वे शहर मे ही रच-बस गये थे।उनकी ईच्छा कई बार गांव आने की रहती,पर बाकी लोगों की अनिच्छा देख कर कभी वे अकेले ही हो आते तथा मातापिता से बहाने बना देते कि बच्चों की परीक्षा है,ईत्यादि।पर हर माह कुछ रूपये भेजना वे नहीं भूलते थे।वे जानते थे कि आज वे जो कुछ है,वह माता पिता की मेहनत और आशीर्वाद का नतीजा है।पर उनकी पत्नी यह सब न समझ पाती।

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ट्रेन मंथर गति से चल रही थी। -“मम्मी कितने गंदे होते है,गांव के लोग….और वो ईडियट राजू ने तो मेरी नयी वाली शर्ट ही गंदी कर दी।उस पर रंग डाल दिया।मैंने भी वो चांटा मारा,बच्चू याद रखेगा।”-अमित कह रहा था। -“वो सब तो ठीक…पर तुमने अपने पापा को नहीं देखा?सुबह से कैसे निकल गये थे,घर से…जब लौटे तो पूरे भूत से नजर आ रहे थे।”-यह उनकी पत्नी की आवाज थी। -“मम्मी गांव मे कमोड़ भी नहीं।हमें नहीं जमता।आप पापा को गाँव जाने को ना कह देना-“नीमू कह रही थी।

आंखे मूंँदे मूंँदे सारी बाते सुनकर विवेकचंद्रजी बचपन की यादों मे गुम हो गये।गांव में उनकी शैतानी के किस्से प्रसिद्ध थे।बड़े शरारती,सबको परेशान करते।कभी वे किसी के पेड़ की ईमलियां तोड़ लाते,या आम।कभी किसी ग्वालिन की मटकी फोड़ देते।होली के समय तो वे गजब ही करते।छोटे से पोखरे मे ढेर सारे टेसू के ढेर सारे फूल तोड़ कर घोलते।फिर जो भी निकलता उसे पकड़कर उसमें डूबो देते।शिकायत होने पर पिताजी लकड़ी लेकर दौड़ाते।

वह चौंक पडे-“…नहीं.. नहीं बाबूजी,मैंने कुछ नहीं किया।”-पत्नी ने उन्हें झिंझोड़ कर उठाया-“,यह क्या बडबडा रहे है आप?कोई सपना देखा क्या?चलिये,उठिये… अपना शहर आ गया।” -“हां.कुछ नहीं… कह कर आंँखोंँ की कोर से छलक आये आंँसूओंँ को रूमाल से पोंँछते हुए वे कुली तलाशने लगे।

जीवन परिचय-

जन्म:26 फरवरी
शिक्षा:बी.एस.सी.एम.ए. साहित्य.एम.ए.मनोविज्ञान
जनसंपर्क अधिकारी, भारतीय संचार लिमिटेड।
1983 से पहले कविता,कहानियाँ लिखी।फिर लघुकथा और लघुव्यंग्य पर कार्य।

महेश राजा की दो पुस्तकें1/बगुलाभगत एवम2/नमस्कार प्रजातंत्र प्रकाशित।
कागज की नाव,संकलन प्रकाशनाधीन।
दस साझा संकलन में लघुकथाऐं प्रकाशित
रचनाएं गुजराती, छतीसगढ़ी, पंजाबी, अंग्रेजी,मलयालम और मराठी,उडिय़ा में अनुदित।
पचपन लघुकथाऐं रविशंकर विश्व विद्यालय के शोध प्रबंध में शामिल।
कनाडा से वसुधा में निरंतर प्रकाशन।
भारत की हर छोटी,बड़ी पत्र पत्रिकाओं में निरंतर लेखन और प्रकाशन।
आकाशवाणी रायपुर और दूरदर्शन से प्रसारण।
पता:वसंत /51,कालेज रोड़।महासमुंद।छत्तीसगढ़।
493445
मो.नं.9425201544

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