महासमुंद- जिले के ख्यातिप्राप्त लघुकथाकार महेश राजा की लघु कथाए इस बार का जाडा,हमेंशा से,सब कुछ सामान्य, अभिवादन की फिलासफी सुधि पाठकों के लिए उपलब्ध है ।
इस बार का जाडा-नवंबर माह की शुरूआत।सही रुप से जाड़ों का आगमन नहीं हुआ था। अचानक शाम को मौसम ने अपना रूख बदला।ठंँडी हवाऐं चलने लगी।छिटपुट बूंदाबांदी भी हुई। हमेंशा की तरह महिला टीवी पर कोई धार्मिक प्रवचन सुन रही थी।पति देव कोई साहित्यिक पुस्तक का वाचन कर रहे थे। मौसम देख कर महिला ने कहा,-“लगता है,इस बार ठंँड बढ़ेगी।ऊनी कपडे निकालने होंगे।”
पुरानी संदूकची में रखे ऊनी वस्त्रों में से कुछ नये कंबल,स्वेटर निकाले।तो देखा दो पेटी बच्चों के पुराने कपडों से भरे पडे थे।वह बोली,-“सुनते हो पुराने कपडें ज्यादा हो गये है;बांट दो न।पडे पडे फट जायेंगे।बच्चों के कई कपडे तो एकदम नये है,छोटे ने एकाद बार पहना होगा,फिर शरीर बढ़ गया।कपडे छोटे पढ गये।”
-“दे देंगे भ ई,पर आज कल कोई उतरन लेने को भी तैयार नहीं।पिछले बरस की याद है न।आफिस के स्वीपर ने साफ मना कर दिया था कि उतरे कपडे नहीं लूंगा।मेरे वस्त्र किसी को फिट नहीं आते अल्टर कराने में ही बहुत पैसे खर्च हो जायेंगे।ऐसा करो किसी तीर्थ स्थान पर जायेंगे ,तो ले चलेंगे।”पति बोले.
महिला जानती थी,हर बार वे कहते है,यहाँ चलेंगे,वहाँ जायेंगे.पर फिर कोई न कोई व्यस्तता आ जायेगी और सब कुछ धरा रह जायेगा।कपडों का पोटला बढते चले जायेगा और इस बार का जाडा भी यूं ही चले जायेगा।जीवन सामान्य गति से चलता रहेगा। पति निर्लिप्त भाव से पलंग पर लेटे थे, आज रविवार जो था।
उन्होंने सर को झटका और मौसम देखकर गरमागरम पकौडे तलने की तैयारी करने लगी।साथ ही मसाला चाय भी,जो कि पतिदेव के पसंद की चीज थी ।
हमेंशा से
दोपहर लगभग ढ़ाई बज रहे थे।बुजुर्ग दंँपति में से पुरूष बैठक में आराम कुर्सी पर बैठे अखंड ज्योति का नया अंक पढ़ रहे थे। तभी दरवाज़े की घंटी जोरों से बज उठी।वे चौंक पडे।थोडी देर पहले ही पत्नी को दवाई देकर भीतर के कमरें में आराम करने भेजा था।महिला गठिया वात से पीडित थी। दरवाजा खोलने पर देखा पांच सात लडके, लडकियां और कुछ महिलाएं थी।वे सब चुनाव के प्रचार हेतू निकले थे।
बुजुर्ग ने कहा,-‘बच्चों, तुम लोग तो कल भी आये थे.. आज..फिर…। एक लडकी ने कहा,’हमें तो मतदाता को बार बार याद दिलाना पडता है।’ पुरूष बोले,’पर,बेटा पढे लिखे लोगों को बारंबार बताने की या लुभाने की जरुरत नहीं.. आप लोग ओर जगहों पर मेहनत करो।’ उनमें से एक लडका बोला-“बस!दो तीन दिन और….फिर नहीं… आयेंगे…।’
तब तक भीतर से बुजुर्ग महिला खांसते खाँसते आ गयी,तल्ख स्वर में बोली,-“,फिर क्यों आओगे बेटा?।चुनाव के परिणाम के बाद ,जीतने के बाद… अगले पाँच वर्ष तक कोई दरवाज़े तक नहीं आता.. कई चुनाव इन बूढी आंँखों ने देखे है…हमेंशा से ऐसा ही होते आया है।नया क्या है?”खांँसते खाँसते उनकी आवाज भर आयी,पुरूष उन्हें कुर्सी पर बैठा कर पानी लेने भीतर चले गये।
बाहर माईक पर शोर था.’ ..इस बार…सिर्फ हम…’
सब कुछ सामान्य
हमेंशा की तरह साहु टी स्टाल में मित्रों के साथ चाय की गर्म चुस्कियों के साथ अध्यात्म, साहित्य और राजनीति पर बहस चल रही थी।शाम डूब रही थी।वातावरण में ठंँड के आगमन की दस्तक थी। एक मित्र बोले,-“हमारा नगर कितना शांँत है।देश भर में आज अनेक प्रकार के अपराध और हिंसा की लपटें चल रही है;और हमारे यहाँ सब कुछ ठीक है।हमारी युवा पीढी कितने आदर से मिल रही है।चरण स्पर्श कर रही है।”
साहुजी मूंँछों में मुसकुराये।मित्र की नादानगी पर आश्चर्य चकित् होकर कह उठे,” भाई ,मेरे यह तात्कालिक है।जानते नहीं हो नगर में चुनाव होने जा रहे है।यह स्थिति उसी का प्रतिफल है।इस बार सब काफी जटिल भी हैअभी तो विनम्रता का पैराग्राफ और भी बढेगा।बस देखते जाओ।”
मैंने भी इस सत्संग में भाग लिया,-“हमारा शहर वैसे भी बडे आयोजनों का छोटा शहर माना जाता रहा है।सब ठीक ही होगा।हमें अपने शहर पर गर्व है।” पहले वाले मित्र ने गहरी ऊँसास ली,-“ईश्वर करे ऐसा ही हो।”
साहुजी ने कहा,-“फिक्र मत किजिये।चुनाव हो जाने दिजिए।फिर देखिएगा।सब कुछ सामान्य हो जायेगा।पहले की तरह अंतर्विरोध,आंतरिक कलह, राजनीति और बहुत कुछ।आज कल हर जगह ऐसा ही हो रहा है।यही हमारी नियति है।
चाय समाप्त हो गयी थी।सब उठ खडे हुए।दूर लाउडस्पीकर पर आवाज आ रही थी,’आप हमें वोट दिजिये, हम आपको सुरक्षा,विकास और सुकून देंगे।’
आलोचक मित्र
मित्र ने मेरी एक सामयिक रचना पर त्वरित टिप्पणी की,-“आजकल खूब अच्छा लिख रहे हो।कथ्य भी अच्छा है,पर संस्मरण उस पर हावी हो रहे है।इससे सावधान रहना होगा।यू नो,अंग्रेज़ी शब्दों कै प्रयोग के मोह से बचना होगा।बाकी सब लगभग ठीक है।प्लीज,टेक केअर एन्डकीप ईट अप।”
अभिवादन की फिलासफी
चाहे नेहरू चौक का चौराहा हो या हनुमान मंदिर वह अचानक टपक पडता।सीधे आपके चरणों में।फिर याचक की तरह हाथ जोडे खडा रहता। उसे चाय पीने या इडली खाने दस रूपयों की जरूरत होती।जैसे ही आप उसे प्रदान करते,वह फिर एक बार पैर में झुकता फिर आगे बढ जाता।
एक बार मुझसे रहा न गया।मैंने कहा,”-भाई,देखो ।रोज रोज यह सब अच्छा नहीं लगता।पैर मत पडा करो।” वह सीधे स्वर में बोला-“सर,मेरा तो काम यही है.हां,जिस दिन से आप रूपये देना बंद कर देंगे।आपके पैर पडना बंद कर दूंगा।फिर किसी और के पैर पडना शुरु कर दूंगा।”
लेखक परिचय
महेश राजा
जन्म:26 फरवरी
शिक्षा:बी.एस.सी.एम.ए. साहित्य.एम.ए.मनोविज्ञान
जनसंपर्क अधिकारी, भारतीय संचार लिमिटेड।
1983से पहले कविता,कहानियाँ लिखी।फिर लघुकथा और लघुव्यंग्य पर कार्य।
दो पुस्तकें1/बगुलाभगत एवम2/नमस्कार प्रजातंत्र प्रकाशित।
कागज की नाव,संकलन प्रकाशनाधीन।
दस साझा संकलन में लघुकथाऐं प्रकाशित
रचनाएं गुजराती, छतीसगढ़ी, पंजाबी, अंग्रेजी,मलयालम और मराठी,उडिय़ा में अनुदित।
पचपन लघुकथाऐं रविशंकर विश्व विद्यालय के शोध प्रबंध में शामिल।
कनाडा से वसुधा में निरंतर प्रकाशन।
भारत की हर छोटी,बड़ी पत्र पत्रिकाओं में निरंतर लेखन और प्रकाशन।
आकाशवाणी रायपुर और दूरदर्शन से प्रसारण।
पता:वसंत /51,कालेज रोड़।महासमुंद।छत्तीसगढ़।
493445
मो.नं.9425201544
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