महासमुंद:-जिले के प्रसिद्ध लघु कथाकार महेश राजा की लघु कथाए साहित्यिक पक्षधरता,भूख कीआग,वादा व् व्यंग्य की समझ सुधि पाठकों के लिए उपलब्ध है
साहित्यिक पक्षधरता-मित्र एक रोज मेरे घर पधारे।मैंनै दरवाजे पर उनका स्वागत किया।रिक्शेवाले को उन्होंने दस रूपये का नोट दिया। रिक्शे वाले ने कहा,-“साहबजी!महंँगाई बहुत बढ गयी है।गरमी भी सख्त पड़ रही है।एक सवारी का यहांँ तक बीस रूपया होता है,दस और दे दिजिये।”
इस पर वे नाराज हो गये।गुस्से से काँपने लगे,-‘अरे लूट मचा रखी है।तुम लोगों के लिये हम कितना संधर्ष कर रहे है , जानते हो?” रिक्शेवाले ने सिर से टपक रहे पसीने को गंदे गमछे से पोंछा, -“अपनी मेहनत का पैसा ही तो माँग रहे है,बाबुजी!इस तरह से हमारा शोषण मत किजिये। दस रूपये दे दिजिये।देर हो रही है।”
इस बार उनका गुस्सा सातवेंँ आसमान पहुंँच गया।बोले ,-“मजदूर होकर हम साहित्यकारों से जबान लड़ाते हो,शोषण की बात करते हो?सीधी तरह से दस रू.लो और चलते बनो।” रिक्शे वाले ने दस रूपये का नोट लौटाते हुए कहा,-“बाबू जी हम गरीब मजदूर है ,एक दिन भूखे रह लेंगे।” उन्होंने दस का नोट वापस जेब मे रख लिया,एक गंँदी गाली दी और बड़बड़ाये,-“सबकी चमड़ीमोटी हो गयी है,सब सिर पर चढ़ गये है।”
भूख की आग-
एक पार्टी विशेष का आगामी चुनाव हेतू शक्ति परीक्षण और संभावनाओं की तलाश संँबंँधित कार्यक्रम रखा गया था। बाहर से वक्ता बुलवाये गये थे।आसपास के गाँवों से भीड़ इकट्ठी की गयी।सबको कहा गया था,भोजन के पैकेट और कुछ रूपये मिलेंगे। उन्हें बस में भर कर लाया गया था।रावण भाटा मैदान में बड़े बड़े पंडाल लगाये गये थे।
भीड़ बढ़ गयी थी।मेहमान देर से आये।फिर कार्यक्रम शुरु हो गया।धूप चढ़ गयी थी।पीने के पानी की यथेष्ठ व्यवस्था भी न थी।दो बज गये।भूख की आग के मारे लोगों की आँते अकड़ने लगी। थोडी देर बाद एक छोटी गाड़ी में भोजन के पैकेट लाये गये।भीड को पता चला तो झपट पड़े।कुछ को पैकेट मिल गये।कुछ पैकेट फट गये।भीड़ के सामने पैकेट कम थे।सब हताश हो गये। मंच पर खड़े कुछ विशेष लोग यह दृश्य देख कर खुश हो रहे थे।उन्हें लगा कि इनकी यही भूख की आग आने वाले चुनाव में काम आने वाली है।भूखे लोगों को आसानी से भरमाया जा सकता है।
वादा:-
आज सुबह-सुबह उसका संदेश मिलते ही राज की आँखों में आँसू आ गये। हुमा उसकी सबसे प्यारी दोस्त।सामान्य मित्रता से भी उपर…। दोनों एक कामन फ्रेंड़ के द्बारा वाटसएप से जुड़े।रोज सुबह अच्छे कोटेशन और बाद में प्यार पगी कविताएं। दोनों कभी मिले न हीं थे।पर अव्यक्त रिश्ता जुड़ चुका था। हुमा समय और सिद्धांत की पाबंद महिला थी।शिक्षा विभाग से जुड़ी थी।दोनों के बीच एक अलौकिक पवित्र रिश्ता जुड़ गया था। कभी -कभी चेट करते समय हुमा ईजाजत माँगती।राज के लिये वे कठिन पल होते।
कई वर्षों की प्रगाढ़ मित्रता के बीच दोनों के बीच एक वायदा हुआ था कि हररोज राज पाँच अंग्रेजी के वाक्य और उसका अनुवाद भेजेगा। दोनों इस पर चर्चा करेंगे। होनी को कुछ और ही मंजूर था।पारिवारिक और आफिसियल परेशानी की वजह से राज इस अनुबंध को कन्टीन्यू नहीं कर पाता।
हुमा बहुत आदर्शवादी, कुलीन परिवार से थी।उसे वादाखिलाफी से सख्त नफरत थी। कुछ दिन पोस्ट न आयी तो हुमा गुस्से हो गयी।उसने मैसेज किया,”तुमने मेरे साथ यह क्यों किया।मुझे वादा तोड़ने वाले शख्स पसंद नहीं।नहीं करना था वादा।मैं डा. रेनू से सीख लेती।” राज ने क्षमा माँगी। परंतु हुमा का दिल टूट चुका था।अब दोनों में वह बात न रही।राज टूटता गया।
आज फिर से मित्रता वाली पोस्ट पढ़कर सजल आँखो से राज अनजाने ही सही पर स्वयं द्बारा की गयी भूल पर शर्मिंदा हुआ।उसका मन किया फोन उठाकर हुमा को विश करे और पुरानी भूलों की माफी माँग ले। अगले ही क्षण राज ड़र गया।हुमा उनमें से नहीं थी।एक बाद भरोसा टूट गया तो फिर वापस जुड़ाव कठिन।हाँ वक्त ही कोई उपाय ढ़ूंढ़ कर ला सकता है। उसे हुमा के साथ बिताये वाट्सएप पर याद आ गये।आँखों से गरम गरम आँसूओं की मोती छलक उठे।
व्यंग्य की समझ
साहु टी स्टाल में एक लेखक मित्र के साथ चाय पीने और सामयिक विषयों पर संवाद करने का रोज का नियम था। एक शाम चाय की चुस्कियों के साथ गपशप चल ही रही थी कि नजर अचानक एक कागज पर लिखी इबारत पर पडी,-मुफ्त सेवा बंद-कृपया ध्यान देंवे।केवल पानी पीने न आऐं।
बडा आश्चर्य हुआ।मुख पर आये भावों को ताड कर होपल मालिक भाऊ रामजी ने कहा-“बडी दिक्कत है साहब।गर्मी सख्त पड रही है।पानी की बडी किल्लत चल रही है।मजबूरी में ऐसा लिखना पड रहा है।
सच भी था।गरमी ने इस बार सारे रिकार्ड तोड दिये थे।नगरपालिका भी पानी की आपूर्ति नहीं कर पा रही थी।फिर नौकरों की दिक्कत। लेखक मित्र ने उन्हें सलाह दी,-“ऐसा मत लिखिये,यह लिखिये कि पानी जरूर पीये.भले ही चाय नाश्ता न करे।” भाऊराम जी खुश हुए। उन्होंने बढिया कार्ड बोर्ड पर पैंट कर लिखवाया।
व्यस्तता के कारण कुछ रोज उधर जाना न हो सका।एक रविवार हम सब पहुंचे।कुछ देर बार देखा तो एक भी बोर्ड नहीं था।पूछने पर होटल मालिक बोले,”-साहब,वह बोर्ड लिख कर तो हम बडे पछताये।पहले तो लोग चाय मंगा कर पानी पीते थे।पर,जबसे यह बोर्ड लगवाया, लोग सिर्फ़ पानी पीकर ही जाने लगे.तुरंत बोर्ड हटाना पडा । हर कोई व्यंग्य नहीं समझता साहब।
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