महासमुंद:-जिले के प्रसिद्ध लघु कथाकार महेश राजा की लघु कथाए-पोस्टर,आज को जी लें व् जरूरत सुधि पाठकों के लिए उपलब्ध है ।
पोस्टर
नेताजी के नगर आगमन पर वे माला लिये सबसे अग्रिम पंक्ति मे खडे थे। पिछली बार जब विरोधी पार्टी के नेता आये थे,तब भी उनका स्वागत फूलमाला से इन्होंने किया था। मैंने जब उन्हें यह बात याद दिलायी तो वह बोले ,-“आप तो आदमियों की बात कर रहे है। भाई साहब हम आदमी नहीं रहे।”
थोडी देर तक सोचने के बाद बोले,-“हम तो इन नेताओं के पोस्टर है…जब तक इनके साथ चिपके रहेंगे, लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते रहेंगे।”
आज को जी लें
रीमा कालेज से थकी माँदी घर पहुंची, कुक जिसे वह आंटी कहती थी। भोजन बनाने आ गयी थी, उसे अदरक वाली चाय बनाने को कह रीमा वाशरूम चली गयी।
फ्रेश होकर किचन में आयी। देखा दोपहर की दोनों सब्जियां बची हुयी थी। माँ जी की तबियत ठीक न होने से उन्होंने नहीं खाया होगा उसने आंटी को कहा,दोनों सब्जियां गर्म कर घर ले जाईयेगा।
रीमा का दिल ऐसा ही था। गरीबों का पेट भरे। इससे ज्यादा खुशी क्या होगी। वह अपनी सैलरी का खासा हिस्सा सगे संबंधी और अपनों के लिये छोटे छोटे उपहार खरीदती। बाँटती।उसे संतोष होता।
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घर में रूपयों की कमी न थी।मायके में भी पिता ने शिक्षक होने के बावजूद उसे कोई अभाव होने.न दिया था। उसका हाथ खुला ही रहा। यहाँ तो सबकुछ है। बड़ी कोठी है। गाड़ी है। डा्ईव्हर है दो मेड है। अन्य खर्च है। बचत का तो सवाल ही नहीं पैदा होता।
वह सोच रही थी। बच्चों के लिए नये कपड़े खरीदने है। पतिदेव को मनायेगी कि कल शहर पहुँच कर खरीदी कर लें। आंटी पूछ रही थी। बेटू के लिये मटर पुलाव बना दें। उसने हँस कर हामी भरी। कहा,आंटी आप भी खाना खाकर जाना। रीमा ऐसी है,उसका मानना था कि कल किसने देखा। अतीत को ज्यादा सोचना ठीक नहीं। बस….आज को जी लें।
जरूरत
वे गाँव के घर में स्थित बगिया के पौधों को पानी पिला रही थी। तभी मोबाईल की घंटी बज उठी। गाँव में नेटवर्क कम ही मिलता था।
शहर से बेटे का फोन था, कह रहा था,खुशी अब बड़ी हो गयी है।आपको बहुत याद करती है। खुशी के साथ के लिये हमने एक बच्चा प्लान किया है,वीना प्रेगनेंट है,और माँ इस बार घर की आया भी ठीक नहीं है। कोई सही मेड़ भी नहीं मिल रही है। तुम तो जानती हो,मुझे ज्यादा छुट्टी नहीं मिलती, वीनू भी आखिर में ही लीव लेगी। तुम्हारी बहुत जरूरत है,शीध्र आ जाओ।
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फोन रख कर वे सोच रही थी, खुशी के समय वह पूरे तीन माह शहर रही थी। वे गाँव की थी। उन्हें शहरी वातावरण पसंद न था।बेटा तो रचबस गया था। होली दिवाली में फोन आते। एक बार गर्मियों में वह खुशी को लेकर आया था। बहु तब भी नहीं आयी थी।
उन्हें पर्याप्त पेंशन मिलता,घर की खेती थी। दो चाकर सारा काम करते। वे पूरा समय अध्ययन और अध्यात्म में लगाती थी। एक बार मन हुआ,बेटे से कह दे,नहीं आ पाऊँगी.तू अपनी व्यवस्था कर ले,परंतु मोहवश न कह पायी। उसने रामू काका से कह कर अपने जाने की तैयारी शुरु कर दी।
महेश राजा,वसंत 51,कालेज रोड.महासमुंद-छत्तीसगढ़
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